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जून, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जिसमें मैं बंधी बँधकर जो दीप बनी

वह बिंब जिसमें मैं बँधी , बँधकर भी स्वतंत्र सदा  आत्मरुप निर्बंध रही , वही सच्चा बंधन था जिसे मैंने कभी तोड़ा नहीं  जिसका मोह मैंने कभी छोड़ा नहीं आँधियों की झंझा में भी उर में जलता रहा विश्वास का दीप अखंड

जब सबकुछ है

जब सबकुछ है , तो उदासी का ये रुप थोड़ा - थोड़ा परेशान करता  मैं नहीं जानती , क्या बात है जो मन व्यथित बार - बार उदोलित होता है  दिशाएँ प्रवर दाहक चिंगारियों की छटकन आज भी कहाँ इस अंतर्द्वन्द्व का अंत हुआ है आज भी अपने उत्तर का याचक रहा प्रश्न

देखो न माता का प्यार

तपती  धूप   में  मिल  जाए   हरे  -  भरे  पेड़ों  की  छाँव  कहीं रुक   जाना   तुम   मेरे   लाल  वहीं  बैठकर   उनके   पास    तुम्हे   मिलेगी   शीतल   मंद  बयार तितलियों   की   सुरगुराहट और    पक्षियों    की   चहचहाहट  चींटियों   की    लंबी    दृढ़संकल्पबध्द   कतार कदाचित  मिल  जायेंगे   वहीं   बैठे   कुछ  और   पथिक

जब आरंभ और अंत सबका एक

क्यों   सदैव   जीत   का   ही   चस्पा   चाहिए  कभी  दूसरों  की  खुशी  के  लिए  हारकर  भी  तो  देखिए  जीत  से  कई   बढ़कर   सुंदर   उत्साहजनक   सुख  देनेवाली   आपकी  ये  हार  होगी  और  आप  हारकर  भी  जीत  जायेंगे कभी  खोयी  हुई   उन  आवाजों  को  भी  सुनना   जो

सघन छायादार वृक्षों के नीचे

सघन छायादार वृक्षों के नीचे शांति का प्रवाह शीतलता की मंद बयार मिलती है जो आज के ए०सी० कूलर पंखों से कई बढ़कर होती है भावनाओं से भरा वह वृक्ष सजीव  ममत्व सुकोमल गुण से संपन्न  बिना किसी भेदभाव के अपना र्स्वस्व देता है   धूप में छाया अरु भूखे को फल देता है  सौरभ सुगंधित पुष्प करते जो तृप्त मन को

सबकुछ स्पष्ट सुनाई देगा

उत्तरार्द्ध     यों     उतर    गया समय     की     रेत     में    कुछ   तपिश अभी  भी   बाकी     थी ढलते  - ढलते    दिन आज   भी     एक   उम्मीद    है एक    पोर    अंकुरण    सा धरती     की    गोद    में धानी    रंग    पताका    लिए नवजीवन    का     विश्वास    दिलाती

पीले पते का स्वप्न था

क्षीण   होती    दुर्बल    काया   और  टूटकर   अलग    होता   कोई  पीला   पता    शाख    से मिलेगा    फिर    अपनी     माटी    से विलीन    हो     जायेगा    इन    पंचतत्वों   में जो   सदा   शाश्वत    है   ,    कहो   अब   क्या    दुःख    है  ? आनंद   जीवन    के  ।

अबकी सावन

शून्य   में   पयोद   फिर   बरसे धरती   की   चुनर   हरी   हो खग   कलरव   के   मिसबोल   हो खेतों   बाग  -  बगान  में   खिलकती  हो   मुस्कान  अरमान  दिल   के  जो  गुप ,  आज  सारे  पूरे  होते  हो गायों  का  रँभाना   और    ग्वाल   बाल   का   बंसी   बजाना  इस   बरखा   ऋतु   चहुँओर   हरियाली   फिर   हो ।

यह घर है , कोई मकान नहीं

दीवारें बोलती है , अकेला घर केवल एक  मकान होता है जहाँ दीवारों पर सबकुछ  सफेद और सूना होता है कहाँ कोई पत्ता बागीचे में खिल पाता है छाई निस्तब्धता ऊँघते वातावरण में वो फिर छिप जाता है जलती धूप उसकी जान लेती , व्याकुल प्यास उसे और  अकुलाती है मनमसोस के फिर वह उम्मीद

जबाव तुम्हारे ही पास है

बदलते   प्रतिमान   नाटकीय  आख्यान  हर  क्षण  एक  नया  रुप  एक  नया  स्वरुप उतार - चढ़ाव   पर्वतों  पठारों   से   होते  हुए  हाईवे   की   लंबी  चौड़ी   सीधी  सपाट  सड़क एक   कभी  न  खत्म  होने  वाली  कहानी अनवरत   आते  -  जाते   मोड़ों   के  साथ  सवाल   करती   सी    बेजुबानी