जिसमें मैं बंधी बँधकर जो दीप बनी
वह बिंब जिसमें मैं बँधी , बँधकर भी स्वतंत्र सदा आत्मरुप निर्बंध रही , वही सच्चा बंधन था जिसे मैंने कभी तोड़ा नहीं जिसका मोह मैंने कभी छोड़ा नहीं आँधियों की झंझा में भी उर में जलता रहा विश्वास का दीप अखंड