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विश्व में अटल सत्य के चिरवास का .!

ओ !  इतिहास   की  घड़ियाँ  चुप   खड़ा   निस्तब्ध  क्या  तूने  पहने  ली  बेड़ियाँ  अचंभा  में  पड़ा शून्य  को  तकता निर्जन  में  अकेला  जर्जर  वृध्द  ? परिवर्तन  की  आंधियाँ बदल  देती  है  कितना  कुछ

जिसमें मैं बंधी बँधकर जो दीप बनी

वह बिंब जिसमें मैं बँधी , बँधकर भी स्वतंत्र सदा  आत्मरुप निर्बंध रही , वही सच्चा बंधन था जिसे मैंने कभी तोड़ा नहीं  जिसका मोह मैंने कभी छोड़ा नहीं आँधियों की झंझा में भी उर में जलता रहा विश्वास का दीप अखंड

अवनी दिवसालोक

अवनी   का    दिवसालोक शोभा    सुंदर    विस्तृत   अंतर -  आलोक श्रुति   पाठ    प्रार्थना   के   रव   भर   लायी पक्षियों    के    मिस    बोल    में    तुमुल   स्वर   मिलाए प्रभाती   की   पावनबेला   मंगलगीत   घर - घर   गाए नदियों   का   जल   निरंतर    पथ   की   पगडंडियाँ   जैसे   चलती   सतत  जाए  आते -  जाते   पथिक    में    तू   ना   अनजान 

वाणी तू गाए ... मन गीत फिर गुनगुनाए

वाणी   तू    गई    टूट    शब्द   गए   हमसे   रुठ अर्थ -  भाव    बिसर   गए    ज्यों   किहीं   दूर खोते    से     अपने     नेत्र    सजल    चुप    है उनमें     एक     मूक     गहरी     वेदना     छिपी सुबक     रही      अंतर्मन     की     विवर्ण     दशा मन    हारे    ना      शब्द   -   शक्ति     यही    वर    दे

माता के आँचल के बिखरे मोती

तेज   हवाएँ    लू   लपट   सूखे    मैदानों    में हाहाकार    प्रचण्डिका   अग्निधार     बाण उफनती    चिंगारियाँ     लौहवर्ण     सावधान  मनसा   सावधान  !   थोड़ा   सोच-विचारकर   काम   करो    जहाँ   भी    जैसे   भी    संभव  हो   सके   अपनी  धरतीमाता   की   पुकार  सुनो   बनके    जो    चारों    दिशाओं   में    गूँज    रही मजदूरों    कामगरों    बेबस   बेजुबानों   की   आह 

अभी बाकी है - एक आस एक विश्वास

अन्तश्चेतना  का   दीप   जला  है  मनमानव   ईश्वरत्व   के   आह्वान   में   विश्वास   का    दृढ़   आधार   छिपा  है  लगा   रही   है    खुली   घाटी    में    एक  मौन    विनम्र    पुकार  ,   साहस   धैर्य   बिंदु प्रकृति    माता    ने    सिखलाया  ; वह   खड़ा   है    दिशाविहीन   नहीं   जो पथविहीन     नहीं     हाँ  ,   मगर अभी    उसका   जागना   बाकी   है

एक स्त्री एक पुरुष

एक   स्त्री   माँ   है ,   एक   पुरुष   पिता   है , एक   स्त्री    बहू    है ,   एक   पुरुष   दामाद  है , एक    स्त्री   बुआ   है ,  एक   पुरुष   फूफा  है ,  एक   स्त्री   भाभी  है ,  एक   पुरुष   भैया   है , एक    स्त्री    मामी   है ,  एक   पुरुष  मामा  है ,

सच्चे मन से

यहीं   समय   है  ,  सही   समय  है जो   गुजर    गया  ,  वो   बीता   कल   था जो    अभी    प्रकट    नहीं   है ,   उसकी  चिंता ,   उसका   संवरण   करना    व्यर्थ   है , दुश्चिंताओं    की    ज्वालाओं   में   जल   ईर्ष्या की    अग्नि     जलाना    और   भी   दाहक   है , सफलताओं    की     चाह     में  , असफलता     की     सीख    को    भूलाना

हे सूर्य !

प्रात   किरणों   ने   किया   सवेरा उषा   भर   लायी   सुबहा   की   लाली भोर    भई     पनघट    पर   गंगा   जमुना   सरयू   गोदावरी   कृष्णा    कावेरी    शिप्रा    नर्मदा सरस्वती    ब्रह्मपुत्र    सिंधु    अगणित मनघाटों    पर     करते    नमस्कार 

मेरे राम मेरे साथ प्रतिपल चलते है

कण    कण    में    बसते   है  । हर    क्षण      में     रहते     है । मेरे    राम    मेरे    साथ    प्रतिपल   चलते   है । बनके     नैया    के     खैवणहार मेरी     नैया     पार     लगाते    है  । अंधेरे     में     करते    उजियारा     राह     दिखाते    है  । मुश्किलों    में    साथ   निभाते   है ।

ममतामयी माँ

कानों  में  एक  अनकहा  संगीत  घुल   रहा  है हाईवे  का   ये   लम्बा   हो   गया   सफर     अब    जल्दी    कटेगा  बैठे  बैठे  पूरे  बदन  में  जो  दर्द  जाग  उठा  है  उसके    लिए    ये    हसीं    वादियाँ हमदर्द     बनेंगी    आखिर    रोज    प्रदूषण  का    महाभयंकर    दर्द     बिना    कोई  उफ    किये     चुपचाप    सहती   है  पर    कब    तक   ?    हम   कब   चेतेंगे  ? और   इस   ममतामयी   माँ  का   क्षोभ  हरेंगे  जो   हम   सबको   देती   है   इतना   प्...

हँसो हँसो खूब हँसो लाॅफिंग बुध्दा

हँसो   हँसो   खूब   हँसो   लाॅफिंग   बुध्दा हँसो   हँसो   खूब   हँसो   लाॅफिंग   बुध्दा हँसो   हँसो    जमकर   हँसो   लाॅफिंग   बुध्दा हँसो   हँसो   मिलकर   हँसो   लाॅफिंग   बुध्दा हँसो   हँसो    खुलकर   हँसो   लाॅफिंग   बुध्दा हँसो    हँसो    तबीयत   से   हँसो   लाॅफिंग  बुध्दा मुश्किलों    की    कठिन    डगर   पर   हँसो कंक्रीट    की   गढ्ढे   वाली   सड़क   पर  हँसो

आशादीप

अन्तस   को   हिलोरे   दे जग    ये    सब   कुछ  नव   नित   नूतन परम    विनीत    कृपालु जगकरता     कारण   हो  कार्य   हो   जगजीवन   का    चक्र  तुम्हीं    से  ,    सृष्टिकाल    के बंधन   ,   लगे   क्या   वास्तव   है  ? यथार्थ    है   ?   या   फिर   इसके ऊपर    कोई    और    ही    चमत्कार  शीत   लहरी    सी    मन    कँपकँपाये कहाँ     उद्गम  ,  कहाँ   से   बह   निकली   थी

खिड़की खोल दो

खिड़की    खोले    बिना   दीदार    कैसे    होगा  ,   जानकर    जो अनजान    बने    परिचय   कैसे पूर्ण    होगा   ?    जगाये   हम   उसको   जो गहरी   नींद    में    अपलक    शांत     चुप    सो   रहा  ,   पर    जगाये   कैसे उसको    जो    मात्र    अभिनय   कर स्व   -  पर    को    छल    रहा  ? कैसे   देखेंगे   इस   पल्लव   प्रात   को

माँ सीता संग विराजे रामहृदयकुँज

चलता    रहता    अंतहीन    राहों    में क्या   पाने    की    तलाश    इसे जिसको    पाना  ,  जिसको   ढूँढा   जाना  है , वह  तो   अन्तर्उर    में    साक्षात   विराजा  है । किन   ख्यालों   में   खोये   हुए  किन    आश्चर्यों    में    जा    पड़े उफनता    सा     ज्वार  ,   मन    को 

दुनिया के रंग सारे

ओ   रे     राधा    के    श्याम ओ    रे    यशोदा    के     लाल मोहे     रंग     दो    आज    ऐसो   चटक    लाल   गुलाल दुनिया    के    रंग    सारे    पीछे    फीके     पड़     जाए  दुनिया     के     रंग     सारे   पीछे     फीके     पड़     जाए  मेरे    पैरों    में   भर   दो    ऐसी   ताल

जिस दिन ...!

भाव   भी   मेरा   अभाव   भी   मेरा जिस   दिन   इन    सबको   त्याग   दूँगी हर   बंधन    से     मुक्त    स्वयं    से    उन्मुक्त    हो असीम    अंतहीन    परम   चैतन्य   से मिल     अगाध    आनंद - कुँज    को पाऊँगी    अपनी    सितार   में   मिला   उसे मधुर    राग    जगजीवन    विश्राम   का

मरा मरा करके

मरा    मरा       करके      तुमने   राम      नाम      बतलाया  तुतुलाती     बोली      को     तुमने   इतना     कुछ      समझाया  थाम     के      मेरी     उँगली    मुझको     काँटों    में    चलना    सिखलाया  अकेले    पथ     पर     भी     निडर    हो आगे     बढ़ना     सिखाया सुख  -   दुख    जीवन   का   अभिन्न    भाग   है

शब्दों को रहने दो !

शब्दों   को   रहने   दो शब्दों    को    कुछ    ना    कहने   दो ये   भावों   की    वीणा   की   झंकार   है  ये   अन्तर्मन   का   मधुर   सहकार्य   है  ना   सुन   कर  भी   कैसे   अनसुना   करो  के , कहे   कि    इस   वीणा   की   हरेक   तार

मुझ थके को

धरा   पर   स्वप्न    सजाए   जीता   है   जीव खोजता    है    परमेश्वर    को कहाँ   मिलेंगे   ईश मन   का    हारा   तन    की    दुर्बल   छाया  आँचल    मलिनता    का  दंभ   द्वेष   और   घृणा   का   खारा   सागर ईर्ष्या   की   अग्नि   प्रचण्ड   नेह   दाहक