आशादीप

अन्तस   को   हिलोरे   दे

जग    ये    सब   कुछ 

नव   नित   नूतन

परम    विनीत    कृपालु

जगकरता     कारण   हो 

कार्य   हो   जगजीवन   का    चक्र 

तुम्हीं    से  ,    सृष्टिकाल    के

बंधन   ,   लगे   क्या   वास्तव   है  ?

यथार्थ    है   ?   या   फिर   इसके

ऊपर    कोई    और    ही    चमत्कार 

शीत   लहरी    सी    मन    कँपकँपाये

कहाँ     उद्गम  ,  कहाँ   से   बह   निकली   थी

वो   सहज   हो   निश्छल   धारा

क्या   आरंभ  ,   क्या   अंत

क्या   दुख   , क्या   सुख

क्या   चेतना  ,   क्या   जड़

क्या   है   कोई   संवाद    ऐसा

है   क्या   कोई    सूत्र   ऐसा

पकड़कर     उसका   छोर

पार    जा     सकूँ    देख   सकूँ   

जो     नजर    के    फेर   से   छिपा   था

क्या    छाया   थी   ?   क्या   था   वह ?

क्या   था  ?    अंतर्मन    की   पुकार 

या    जो     खंडहर    से    टकरा    लौट

रही   थी ,   कुछ   बचाने   ,  कुछ   पाने  को

कुछ     निश्शेष    सा    कहने   को

क्या    उद्गार    था    क्लांति   की   गहन

काली    अंधेर   थी   या   सुबह   के    होना  

का   निकट    होने    का    इशारा

तृण    अधीर     आकुल

सफर    का    मारा   था 

उसकी     करहा      अनजान    सुनसान

में    रव    भरती  ,   या    कुछ   था  ?

स्पंदन    हार    रहा    था  

मौन    मौन    को    काट    रहा   था 

इतनी    नीरवता    ना    करो   मेरे   ईश्वर 

अकिंचन     याचना    करता    तुमसे

एक   विनम्र   करुण   दृष्टि   दया   की   करो

एक    नव    आशादीप     मेरे    अंतस्तल 

में      जला    दो  ! 


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