अजन्ता - भगवतशरण उपाध्याय रचित निबन्ध
जिन्दगी को मौत के पंजों से मुक्त कर उसे अमर बनाने के लिए आदमी ने पहाड़ काटा है । किस तरह इंसान की खूबियों की कहानी सदियों बाद आने वाली पीढ़ी तक पहुँचायी जाये , इसके लिए आदमी ने कितने ही उपाय सोचे और किये । उसने चट्टानों पर अपने संदेश खोदे , ताड़ों से ऊँचे धातुओं से चिकने पत्थर के खम्भे खड़े किये , ताँबे और पीतल के पत्थरों पर अक्षरों के मोती बिखेरे और उसके जीवन - मरण की कहानी सदियों के उतारों पर सरकती चली आयी , चली आ रही है , जो आज हमारी अमानत - विरासत बन गयी है ।
इन्हीं उपायों में से एक पहाड़ काटना भी रहा है । सारे प्राचीन सभ्य देशों में पहाड़ काटकर मन्दिर बनाये गये है और उनकी दीवारों पर एक से एक अभिराम चित्र लिखे गये है ।
आज से कोई सवा दो हजार साल पहले से ही हमारे देश में पहाड़ काटकर मन्दिर बनाने की परिपाटी चल पड़ी थी । अजन्ता की गुफाएँ पहाड़ काटकर बनायी जाने वाली देश की सबसे प्राचीन गुफाओं में से है , जैसे एलोरा और ऐलीफैंटा की सबसे पिछले काल की । देश की गुफाओं या गुफा - मन्दिरों में सबसे विख्यात अजन्ता के है , जिनकी दीवारों और छतों पर लिखे चित्र दुनिया के लिए नमूने बन गये है । चीन के तुन - हुआँग और लंका के सिमिरिया की पहाड़ी दीवारों पर उसी के नमूने के चित्र नकल कर लिये गये थे और जब अजन्ता के चित्रों ने विदेशों को अपने प्रभाव से इस प्रकार निहाल किया , तब भला अपने देश के नगर - देहात उनके प्रभाव से कैसे निहाल न होते ? वाघ और सित्तनवसल की गुफाएँ उसी अजन्ता की परम्परा में है , जिनकी दीवारों पर प्रेम और दया की एक नयी दुनिया ही सिरज गयी है और जैसे संगसाजों ने उन गुफाओं पर रौनक बरसायी है , चित्तेरे जैसे रंग और रेखा में दर्द और दया की कहानी लिखते गये है , कलावन्त छेनी से मूरत उभारते - कोरते गये है , वैसे ही अजन्ता पर कुदरत का नूर बरस पड़ा है , प्रकृति भी वहाँ थिरक उठी है । बंबई ( अब मुंबई ) के सूबे में बंबई और हैदराबाद के बीच , विन्ध्याचल के पूरब - पश्चिम दौड़ती पर्वतमालाओं से निचौंधे पहाड़ों का एक सिलसिला उत्तर से दक्खिन चला गया है , जिसे सह्यद्रि कहते है । अजन्ता के गुहा - मन्दिर उसी पहाड़ी जंजीर को सनाथ करते है ।
अजन्ता गाँव से थोड़ी ही दूरी पर पहाड़ों के पैरों में साँप - सी लोटती बाधुर नदी कमान - सी मुड़ गयी है ।वहीं पर्वत का सिलसिला एकाएक अर्ध्दचन्द्राकार हो गया है , कोई दो - सौ पचास फुट ऊँचा हरे वनों पर मंच पर मंच की तरह उठते पहाड़ों का यह सिलसिला हमारे पुरखों को भा गया है और उन्होंने उसे खोदकर भवनों - महलों से भर दिया । सोचिये जरा ठोस पहाड़ की चट्टानी छाती और कमजोर इन्सान का उन्होंने जो मेल किया , तो पर्वत का हिया दरकता चला गया और वहाँ एक - से - एक बरामदे , हाल और मन्दिर बनते चले गये ।
पहले पहाड़ काटकर उसे खोखला कर दिया गया , फिर उसमें सुंदर भवन बना लिए गए , जहाँ खम्भों पर उभारी मूरतें विहँस उठी । भीतर की समूची दीवारें और छत्ते रगड़कर चिकनी कर ली गयी और तब उन पर लहराती रेखाओं में चित्रों की काया सिरज दी , फिर उनके चेले कलावन्तों ने उनमें रंग भरकर प्राण फूँक दिये। फिर तो दीवारें उमंग उठी , पहाड़ पुलकित हो उठे ।
कितना जीवन बरस पड़ा है इन दीवारों पर ; जैसे फसाने अजायब का भण्डार खुल पड़ा हो । कहानी से कहानी टकराती चली गयी है । बन्दरों की कहानी , हाथियों की कहानी , हिरनों की कहानी । कहानी क्रूरता और भय की , दया और त्याग की । जहाँ बेरहमी है , वहीं दया का भी समुद्र उमड़ पड़ा है । जहाँ पाप है , वहीं क्षमा का सोता फूटा पड़ा है । राजा और कँगले , विलासी और भिक्षु , नर और नारी , मनुष्य और पशु सभी कलाकारों के हाथों सिरजते चले गए है । हैवान की हैवानियत को इंसान की इन्सानियत से कैसे जीता जा सकता है , कोई अजन्ता में जाकर देखे । बुद्घ का जीवन हजार धाराओं में होकर बहता है । जन्म से लेकर निर्वाण तक उनके जीवन की प्रधान ,घटनाएँ कुछ ऐसे लिख दी गयी है कि आँखें अटक जाती है , हटना का। नाम नहीं लेती ।
यह हाथ में कमल लिए बुध्द खड़े है , जैसी छवि छलकी पड़ती है , उभरे नयनों की ज्योत पसरती जा रही है और यह है यशोधरा है , वैसे ही कमल नाल धारण किए हुए त्रिभंग में खड़ी । और यह दृश्य है महाभिनिष्क्रमण का - यशोधरा और राहुल निद्रा में खोये , गौतम दृढ़निश्चय पर धड़कते हिया को सँभालते । और यह नंद है , अपनी पत्नी सुंदरी का भेजा, द्वार पर आये बिना भिक्षा के लौटे भाई बुध्द को लौटाने जो आया था और जिसे भिक्षु बन जाना पड़ा था । बार-बार वह भागने को होता है , बार-बार पकड़कर संघ में लौटा लिया जाता है । उधर फिर वह यशोधरा है बालक राहुल के साथ । बुध्द आये है , पर बजाये पति की तरह आने के भिखारी की तरह आये है और भिक्षापात्र देहली पर चढ़ा देते है , यशोधरा क्या दे , जब उसका स्वामी भिखारी बनकर आया है ? क्या न दे डाले ? पर है ही क्या अब उसके पास , उसकी मुकुटमणि सिध्दार्थ के खो जाने के बाद ? सोना - चाँदी , मणि - माणिक , हीरा - मोती तो उस त्यागी जगत्राता के लिए मिट्टी के मोल नहीं । पर हाँ , है कुछ उसके पास - उसका बचा एकमात्र लाल - उसका राहुल। और उसे ही वह बुध्द को अपने सरबस की तरह दे डालती है ।
और उधर वह बन्दरों का चित्र है , कितना सजीव कितना गतिमान । उधर सरोवर में जल - विहार करता वह गजराज कमल - दण्ड तोड़- तोड़कर हथिनियों को दे रहा है । वहाँ महलों में वह प्यालों के दौर चल रहे है, उधर वह रानी अपनी जीवन - यात्रा समाप्त कर रही है , उसका दम टूटा जा रहा है । खाने - खिलाने , बसने - बसाने , नचाने - गाने , कहने - सुनने , वन - नगर , ऊँच - नीच , धनी - गरीब के जितने नजारे हो सकते है , सब आदमी अजन्ता की गुफ़ओं की इन दीवारों पर देख सकता है ।
बुध्द के इस जन्म की घटनाएँ तो इन चित्रित कथाओं में है ही , उनके पिछले जन्मों की कथाओं का भी इसमें चित्रण हुआ है । पिछले जन्म की ये कथायें जातक कहलाती है । उनकी संख्या 555 है और इनका संग्रह जातक नाम से प्रसिध्द है , जिनका बौध्दों में बड़ा मान है । इन्हीं जातककथाओं में से अनेक अजन्ता के चित्रों में विस्तार के साथ लिख दी गयी है । इन पिछले जन्मों में बुध्द ने गज , कपि , मृग आदि के रुप में विविध योनियों में जन्म लिया था और संसार के कल्याण के लिए दया और त्याग का आदर्श स्थापित करते वे बलिदान हो गये थे । उन स्थितियों में किस प्रकार पशुओं तक ने मानवोचित व्यवहार किया था , किस प्रकार औचित्य का पालन किया था , यह सब उन चित्रों में असाधारण रुप से दर्शाया गया है । और उन्हीं को दर्शाते समय चितेरों ने अपनी जानकारी की गाँठ खोल दी है , जिससे नगरों और गाँवों , महलों और झोपड़ियों , समुद्रों और पनघटों का संसार अजन्ता के उस पहाड़ी जंगल पर उतर पड़ा है । और वह चित्रकारी इस खूबी से सम्पन्न हुई है कि देखते ही बनता है । जुलूस के जुलूस हाथी , घोड़े , दूसरे जानवर जैसे सहसा जीवित होकर अपने - अपने समझाये हुए काम जादूगर के इशारे पर सँभालने लग जाते है ।
इन गुफाओं का निर्माण ईसा से करीब दो सौ साल पहले शुरु हो गया था और वे सातवीं सदी तक बनकर तैयार भी हो चुकी थी । एक - दो गुफाओं में करीब दो हजार साल पुराने चित्र भी सुरक्षित है । पर अधिकतर चित्र भारतीय इतिहास के सुनहरे युग गुपतकाल ( पाँचवी सदी ) और चालुक्यकाल ( सातवीं सदी ) के बीच बने ।
अजन्ता संसार की चित्रकलाओं में अपना अद्वितीय स्थान रखता है । इतने प्राचीनकाल के इतने सजीव , इतने गतिमान , इतने बहुसंख्यक कथाप्राण चित्र कहीं नहीं बने । अजन्ता के चित्रों ने देश - विदेश सर्वत्र की चित्रकला को प्रभावित किया । उसका प्रभाव पूर्व के। देशों की कला पर तो पड़ा ही , मध्य - पश्चिमी एशिया भी उसके कल्याणकर प्रभाव से वंचित न रह सका ।
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