विश्रांत हो जाती
रोज हवाओं का झोंका ,
उस सकरी - सी गली से होकर हौलें से
मस्त बहारों को हिलोरे देता हुआ गुजरता
दीवारों के बीच से
पत्रों को रव दे जाता है ।
संग विहंगों का कलरव बोल जाता है ।
डालियाँ खुद - ब - खुद
सस्नेह मुस्काती दुलराती आंचल की छाँव तले
लेने को झुकी - सी जाती है ।
वार्ता की लय में कुछ ध्वनि अनगूँज बन
व्याकार के ऊँचे नभों में
अदृश्य साधना का मन बन खो जाती है ।
पकड़ से बाहर - बाहर होकर
चुपके से निकल जाती है ,
भावों - विचारों में कुछ अपनी आवाज
का संगीत भर जाती है ,
निस्तब्धता के शब्द में
गागर - सा - सागर भर अविकल दूर अपनी
राह की तलाश में खो जाती ,
लौट फिर इसी पथ पर आती ।
संध्या समय प्रभु वंदन का अभिवादन करती
सी प्रणत - मौन हो जाती ।
गहन होते तम में निराकार
अंतर्तम को मिला लुप्त हो जाती ।
श्वास - निश्वास माला फेरे जग बिल्कुल एकांत ।
सुबह की लाली उषा के लिए
वो कदम्ब की डाली विश्रांत हो जाती ।
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