वक्त
नीरवता की छाँह में कुछ विस्तृत मौन रहा
अनवरत सतत प्रयासों से
अनकहे छोड़ , दूसरी राहों में फैले वितानों में
सरकता - गया वक्त ,
जा रहा है ...
और अभी भी जा रहा है ।
मंज़िल का उसे कुछ अता - पता नहीं
राहों की परवाह से सरासर बेखबर ।
आखिर उसे थोड़े - ही चलना है ,
चलना तो हमें है ,
गाड़ी ही ये कुछ ऐसी है ।
रुकती ही नहीं ...
पर रुकना तो हमें भी नहीं है ...
वक्त का ये साथ हीं कुछ ऐसा है ।
खड्ड हो या महाखड्ड हो ?
करवाँ तो ये खुद-ब-खुद बना डालता है ।
सुख में हजार होंगे ,
दुख में ये उलटकर खुद आ जायेगा ।
रुक कर निश्चिंत श्वास जो लेंगे ,
कहीं न कहीं से बीता वक्त बन आ जायेगा ,
स्मृतियों की खट्टी - मीठी तासीर बनकर छायेगा ।
चाहे तो जो कुछ नहीं - अभी
जिसकी छाया का रंच नहीं ,
वहीं स्वपन बन क्या - क्या दिख ला जायेगा ।
वक्त ! चूका है किभी ,
जो आज या आगे चलकर किभी चूक जायेगा ।
फेर का खेल खेले किभी थकता नहीं
स्वभाव से चंचल बन किसी
एक पहलू में आकर ... ये रुका नहीं
नीरवता की छाँह में भी बहता है ।
परे को पार करता - सा ,
परे में आकर पता नहीं कहाँ लुप्त रहता है ।
परे से उतर इधर तो क्षण जाना ,
कुछ नहीं में भी बहुत कुछ आ जाता है ।
ये वक्त का साथ जब बन जाता है ।
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