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हल्दीघाटी - श्यामनारायण पाण्डेय कृत

मेवाड़ -  केसरी   देख  रहा , केवल   रण  का  न  तमाशा  था । वह   दौड़ -  दौड़   करता  था  रण , वह   मान -  रक्त  का  प्यासा   था। चढ़कर   चेतक  पर   घूम  -  घूम  , करता   सेना   रखवाली  था ।

झाँसी की रानी की समाधि पर

  इस  समाधि  में   छिपी  हुई   है , एक   राख   की   ढेरी । जल   कर   जिसने  स्वतंत्रता  की , दिव्य   आरती   फेरी ।। यह  समाधि ,  यह   लघु  समाधि   है , झाँसी   की   रानी   की । अंतिम   लीलास्थली   यही   है , लक्ष्मी   मरदानी   की ।।

स्वदेश प्रेम - रामनरेश त्रिपाठी की कविता

अतुलनीय   जिनके   प्रताप   का , साक्षी   है   प्रत्यक्ष   दिवाकर । घूम  -  घूम   कर   देख  चुका  है , जिनकी   निर्मल   कीर्ति   निशाकर ।। देख   चुके   है   जिनका   वैभव , ये   नभ   के   अनन्त  तारागण । अगणित   बार   सुन  चुका  है   नभ , जिनका   विजय - घोष   रण -  गर्जन ।।

भारत माता का मंदिर यह

  भारत  माता  का  मंदिर  यह समता   का   संवाद   जहाँ , सबका  शिव  कल्याण   यहाँ  है  पावें   सभी  प्रसाद  यहाँ । जाति  धर्म   या   संप्रदाय   का , नहीं   भेद -  व्यवधान  यहाँ , सबका   स्वागत   सबका   आदर सबका   सम  सम्मान   यहाँ ।

उठो धरा के अमर सपूतों

उठो   धरा   के   अमर   सपूतों  पुनः   नया   निर्माण    करो । जन   जन   के   जीवन   में    फिर   से नई   स्फूर्ति ,   नव    प्राण    भरो । नया   प्रात    है ,   नई    बात    है , नयी   किरण   है ,   ज्योति   नई  ।

वीर तुम बढ़े चलो

वीर   तुम   बढ़े   चलो  !  धीर   तुम  बढ़े   चलो  ! हाथ   में    ध्वजा   रहे    बालदल   सजा   रहे ध्वज    कभी    झुके    नहीं ,  दल   कभी   रुके   नहीं । वीर   तुम    बढ़े    चलो  !   धीर   तुम    बढ़े   चलो  !

हिंदुस्तान हमारा है - बालकृष्ण शर्मा नवीन

कोटि - कोटि  कंठों   से   निकली     आज  यहीं   स्वरधारा  है । भारतवर्ष  हमारा  है  यह , हिंदुस्तान  हमारा  है । जिस  दिन  सबसे  पहले  जागे , नव  सृजन  के  सपने  घने ।

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ - ( बालकृष्ण शर्मा नवीन )

कवि ,   कुछ    ऐसी   तान   सुनाओ  , जिससे   उथल - पुथल   मच  जाए  ,  एक   हिलोर   इधर   से   आए  , एक    हिलोर   उधर   से    आए ,

भारती जय विजय करे- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कृत

भारती  ,  जय ,  विजय    करे   कनक -  शस्य -  कमल   धरे । लंका   पदतल   शतदल गर्जितोर्मि    सागर  -  जल

प्रयाणगीत ( चंद्रगुप्त -जयशंकर प्रसाद कृत )

हिमाद्रि   तुंग  शृंग  से  प्रबुध्द  शुध्द  भारती । स्वंय  प्रभा   समुज्ज्वला  स्वतंत्रता   पुकारती । अमर्त्य  वीर  पुत्र  हो ,  दृढ़प्रतिज्ञ  सोच  लो ।

जवानी

प्राण   अंतर   में   लिए   ,  पागल   जवानी  ! कौन   कहता   है    कि   तू    विधवा   हुई  ,    खो   आज   पानी । चल    रही   है   घड़ियाँ  ,  चले   नभ   के   सितारे , चल   रही   नदियाँ  ,  चले   हिमखंड   प्यारे , चल   रही   है   साँस  ,   फिर  तू  ठहर   जाये ? दो   सदी   पीछे   कि    तेरी   लहर   जाये  । पहन   ले    नर - मुंड - माल ,  उठ   स्वमुंड   सुमेरु   कर   ले ; भूमि - सा  तू   पहन   बाना  आज  धानी प्राण   तेरे   साथ   है  , उठ  री  जवानी ! द्...

पुष्प की अभिलाषा

  चाह   नहीं   मैं   सुरबाला   के   गहनों   में    गूँथा   जाऊ , और चाह  नहीं  प्रेमी - माला  में   बिंध प्यारी  को   ललचाँऊ , चाह  नहीं  सम्राटों  के  शव  पर हे  हरि !  डाला   जाँऊ , चाह   नहीं   देवों   के   सिर  पर  चढूँ   भाग्य   पर   इठलाँऊ   मुझे   तोड़   लेना   वनमाली  , उस   पथ   पर   देना   तुम   फेंक  मातृभूमि   पर   शीश   चढ़ाने   , जिस   पथ   पर   जावें   वीर   अनेक  ! 

झाँसी की रानी

   ● सुभद्राकुमारी चौहान  की  प्रसिद्ध  कविता  झाँसी  की  रानी - सिंहासन   हिल   उठे   राजवंशों   ने   भृकुटि   तानी   थी  , बूढ़े   भारत   में   भी   आई   फिर   नयी   जवानी   थी  , गुमी   हुई   आजादी   की   कीमत   सबने   पहचानी  थी , दूर   फिरंगी   को   करने   की   सबने  मन   में   ठानी   थी  , चमक   उठी   सन्   सत्तावन   में   वह  तलवार   पुरानी  थी  , बुंदेले    हरबोलों    के    मुँह    हमने    सुनी    कहानी   थी  , खूब    लड़ी   मर्दानी   वह   तो...

कर्मवीर

 देख कर बाधा विविध , बहु विघ्न घबराते नहीं । रहे भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं । काम कितना ही कठिन क्यों न हो उकताते नहीं । भीड़ में चंचल बने जो , वीर दिखलाते नहीं । हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले । सब जगह सब काल में वे हीं मिले फूले - फले ।

भारतेंदु संदेश

 ●  उन्नत  चित्त  ह्वैं  आर्य  परस्पर  प्रीति  बढ़ावै  ।      कपट  नेह  तजि सहज सत्य व्यौहार चलावै।      जब न संसरग  जात  दोस गन इन सो छूटै।      तजि विविध देव रति कर्म मति एक भक्ति पथ सब गहै।      हिय भोगवती सम गुप्त हरिप्रेम धार नितही  बहावै।       सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेंदु जी द्वारा अनुदित नाट्य कृति कर्पूरमंजरी के अंत में शुभकामना सन्देश के रूप में लिखी गयी थी।    अर्थ - कवि की इच्छा है कि सभी भारतवासी उन्नत चित्त होकर आपसी द्वेष और कटुता का त्याग कर पारस्परिक सौहार्द और भाईचारे का विकास करें। एक दूसरे के प्रति स्नेहभाव अपनाते हुए जातीय कटुता जैसे दोषों से ऊपर उठें सुपथ की ओर अपने कदम बढ़ाएं और एक कल्याणकारी और समृद्धशाली देश का निर्माण करें। सभी लोग अपने-अपने धर्म के अनुरुप अपने आराध्य की  उपासना करते हुए  , सभी धर्मों को एक समान मानते हुए। उनमें प्रतिपादित सार्वभौम और सर्वमान्य नैतिक मूल्यों को अपने जीवन मे...