प्रयाणगीत ( चंद्रगुप्त -जयशंकर प्रसाद कृत )
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुध्द शुध्द भारती ।
स्वंय प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ।
अमर्त्य वीर पुत्र हो , दृढ़प्रतिज्ञ सोच लो ।
प्रशस्त पुण्य पंथ है , बढ़े चलो बढ़े चलो ।
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह सी ।
सपूत मातृभूमि के - रुको न शूर साहसी ।
आरति सैन्य सिंधु में , सुवाऽग्नि से जलो ।
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो ।
संदर्भ - प्रस्तुत प्रयाणगीत प्रख्यात छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद कृत चंद्रगुप्त नाटक के पृष्ठ दृश्य से समुध्दृत है ।
प्रसंग - अलका द्वारा यह प्रयाणगीत तक्षशिला सैनिकों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से गया जाता है ; ताकि तक्षशिला के सैनिक व जनता अपने मनोबल से मजबूत होकर विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्घ लड़कर अपने गौरव को अक्षुण्ण बनाए रखे ।
तक्षिशला के नरेश आम्भीक द्वारा विदेशी आक्रमणकारी सिकंदर को समर्थन दिए जाने पर जनता में असंतोष और विद्रोह की भावना उत्पन्न हो जाती है । इस असंतोष को नेतृत्व देने का कार्य आम्भीक की बहन अलका करती है ; वह अपने भाई की अवसरवादी राजनीति का विरोध करती है और जनता को एकजुट कर विदेशी आक्रमण का मुकाबला करने के लिए प्रेरित करती है । ( चंद्रगुप्त नाटक , चतुर्थ अंक , पृष्ठ दृश्य जयशंकर प्रसाद कृत ) ।
व्याख्या - अलका तक्षशिला के नागरिकों को संबोधित करती हुई कहती है कि हिमालय के विशाल पर्वतों से स्वतंत्रता की पुकार आ रही है । स्वयंप्रभा समुज्ज्वला विघाधिष्ठात्री देवी सरस्वती के स्वर के रुप में स्वतंत्रता की आवाज गूँज रही है । तुम अपने कर्त्तव्य पथ पर अडिग रहो , अपने शौर्य को जाग्रत करो । अपने पूर्वजों के असीम शौर्य को स्मरण करो जिनकी कीर्ति रश्मियाँ चारों दिशाओं में फैली हुई है । उनका अलौकिक तेज चारों ओर प्रकाशित है । तुम उन महान पूर्वजों की संतान हो , तुम्हारा इस प्रकार निराश हो जाना उचित नहीं है । तुम साहसी हो निडर होकर आगे बढ़ो । तुम शत्रुओं की सैन्य सागर में वाऽवाग्नि के समान ज्वाला रुप में दहक उठो । तुम्हें इस समय कहीं नहीं रुकना है , तुम प्रवीर हो आगे बढ़कर अपने साहस का परिचय दो , विजयी बनो ।
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