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पहाड़ी ढलान पर से

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पहाड़ी  ढलान   पर   से सरकता   सांझ   का   वक्त गुलाबी  लाल  से  सुरमाई बादल सूरज  का   गोलाकार   रुप प्रत्यक्ष  सीधे   अब  जाते - जाते ज्यों  आँखें  मीचे  गीत  कोई  पहाड़ी  गाता  धुन  वो  जीवन की   सुनाता    बंद  तरानों को  बरसो  छेड़े  कोई  अपना याद  आता   अग्नि  की  ऊष्म पोरे  -  मिलकर  बोले   साँवरे यहीं  कही  बंसी  बजाता ।

शरद की मीठी गुनगुनी धूप

शरद की मीठी गुनगुनी धूप  एक आँगन की याद दिलाती है खिली हुई धूप  ऊन के गोले और तेजी सी चलती हुई सिलाईयाँ दादी नानी माँ बुआ बेटी चाची बड़ीमम्मी और भाभी सब साथ संग मेरे पड़ोसवाली सहेली पूरी भरी गोष्ठी लगते हुनर के पैबंद  रंगीन धागों से तैयार  क्रोशिया की झालर

इबादत जो देखी है

अपलक नयन तीरे एक अकूल तट विमल    सपतरंग सप्तपर्ण प्रतिबिंब खिलते शतदल कमल फैला हुआ विस्तृत क्षितिज  ठन गई है बात खुदा से

विश्व में अटल सत्य के चिरवास का .!

ओ !  इतिहास   की  घड़ियाँ  चुप   खड़ा   निस्तब्ध  क्या  तूने  पहने  ली  बेड़ियाँ  अचंभा  में  पड़ा शून्य  को  तकता निर्जन  में  अकेला  जर्जर  वृध्द  ? परिवर्तन  की  आंधियाँ बदल  देती  है  कितना  कुछ

दिवाली की रौनक तभी सफल बने

सर्द दिनों की रुहानी आहट लिए मौसम का रुख बदला है सिमटा - सिमटा दिन  गुलाबी ठंडक लिए  सूरज आसमाँ के पट पर खिलने लगे गुलाब  मंजरी पर पुलकित पुष्प

तमाशा

अम्बर सा रंग , धरती मेरी धानी  सागर का बहता पानी ,  देती मोती सपनों को आकार कोरे मन की ये कोरी सी कहानी कहता क्या रंग , कहता है क्या पानी उड़ने की जो दिल - ए - तमन्ना    ये मन ने है ठानी 

जनपथ बहुराती

संकेत संकेतक कभी शुभ समाचार की कभी किसी अनहोनी अनिष्ट की दोनों ही रहस्य भविष्य के गर्भ में छिपे है जिसको उस त्रिकालदर्शी के सिवा मैंने क्या किसी ने भी नहीं देखा , तो सुख- दुख के तराजू बराबर है दिन के बाद रात, रात के बाद दिन कोई बाधा नहीं , फिर अस्वीकार कैसा

हम सब एक परिवार है

जरुरी नहीं की हर गीत लिखा जाए  कुछ गीत बस यूँही गुनगुना लिया जाए खुली हवा में खुले जीवन के साथ  हर बाधा से मुक्त अविमुक्त  स्वतंत्र खग की उड़ान  अनन्त व्योम में विचरते बादलों की भाँति बिना व्यक्त किए व्यक्त कर देने की बात  हवाओं की शीतल छाँह में घुलते शब्द

चलते चलो

देख आसमान को और उठ खड़ा हो  चलते चलो उसके साथ  मुश्किलों में भी जीना सीखो बनते - मिटते नित ये बादल जीवन की सच्चाई है आज है तो कल नहीं वही याद रहे जो सूखे दिन में आ करुण बरस गए  सूखी तलहटी में जीवन को भर गए  फूल खिले फसलें लहरायी

सेवाभाव पथ लक्ष्य यहीं

वक्त के साथ बदलता अदब हर साँचे में ढलना  कदम से कदम मिलाकर चलना भीड़ की मक्खी बन जाना आसान है , पर खुद को खुद में रहकर तराशना थोड़ा   मुश्किल है , अपनी गलतियों को समझना और सुधारना  सुधार की अपेक्षा तो हम सदैव दूसरों से ही रखते है

काश का भरोसा काँच सा

काश   से   निकल   बाहर खुली  हवा  में  खुद  को  हहराना  दो  थोड़ा - थोड़ा बंद   रहकर    सीलन   की   बदबू    छाई   की बारिश    से    जमीन   पर    जम   आई   काई   है दोष   नहीं   किसी  का   ,  काश  का   भरोसा  काँच  सा

चलो देख आए

हवाओं   से   दूर   नीलगगन   के  साथ  समंदर   का   तरंगायित   दर्पण हरियाली   का   तृण -  तृण लहराता  धरा   के   आंगन  में उत्सव   के  साथ  सावन  की  सौगात  बारिश   में   झूमता -  गाता   बालदल कागज   की    कश्ती    बनाता    और

जिसमें मैं बंधी बँधकर जो दीप बनी

वह बिंब जिसमें मैं बँधी , बँधकर भी स्वतंत्र सदा  आत्मरुप निर्बंध रही , वही सच्चा बंधन था जिसे मैंने कभी तोड़ा नहीं  जिसका मोह मैंने कभी छोड़ा नहीं आँधियों की झंझा में भी उर में जलता रहा विश्वास का दीप अखंड

जब सबकुछ है

जब सबकुछ है , तो उदासी का ये रुप थोड़ा - थोड़ा परेशान करता  मैं नहीं जानती , क्या बात है जो मन व्यथित बार - बार उदोलित होता है  दिशाएँ प्रवर दाहक चिंगारियों की छटकन आज भी कहाँ इस अंतर्द्वन्द्व का अंत हुआ है आज भी अपने उत्तर का याचक रहा प्रश्न

देखो न माता का प्यार

तपती  धूप   में  मिल  जाए   हरे  -  भरे  पेड़ों  की  छाँव  कहीं रुक   जाना   तुम   मेरे   लाल  वहीं  बैठकर   उनके   पास    तुम्हे   मिलेगी   शीतल   मंद  बयार तितलियों   की   सुरगुराहट और    पक्षियों    की   चहचहाहट  चींटियों   की    लंबी    दृढ़संकल्पबध्द   कतार कदाचित  मिल  जायेंगे   वहीं   बैठे   कुछ  और   पथिक

जब आरंभ और अंत सबका एक

क्यों   सदैव   जीत   का   ही   चस्पा   चाहिए  कभी  दूसरों  की  खुशी  के  लिए  हारकर  भी  तो  देखिए  जीत  से  कई   बढ़कर   सुंदर   उत्साहजनक   सुख  देनेवाली   आपकी  ये  हार  होगी  और  आप  हारकर  भी  जीत  जायेंगे कभी  खोयी  हुई   उन  आवाजों  को  भी  सुनना   जो

सघन छायादार वृक्षों के नीचे

सघन छायादार वृक्षों के नीचे शांति का प्रवाह शीतलता की मंद बयार मिलती है जो आज के ए०सी० कूलर पंखों से कई बढ़कर होती है भावनाओं से भरा वह वृक्ष सजीव  ममत्व सुकोमल गुण से संपन्न  बिना किसी भेदभाव के अपना र्स्वस्व देता है   धूप में छाया अरु भूखे को फल देता है  सौरभ सुगंधित पुष्प करते जो तृप्त मन को

सबकुछ स्पष्ट सुनाई देगा

उत्तरार्द्ध     यों     उतर    गया समय     की     रेत     में    कुछ   तपिश अभी  भी   बाकी     थी ढलते  - ढलते    दिन आज   भी     एक   उम्मीद    है एक    पोर    अंकुरण    सा धरती     की    गोद    में धानी    रंग    पताका    लिए नवजीवन    का     विश्वास    दिलाती

पीले पते का स्वप्न था

क्षीण   होती    दुर्बल    काया   और  टूटकर   अलग    होता   कोई  पीला   पता    शाख    से मिलेगा    फिर    अपनी     माटी    से विलीन    हो     जायेगा    इन    पंचतत्वों   में जो   सदा   शाश्वत    है   ,    कहो   अब   क्या    दुःख    है  ? आनंद   जीवन    के  ।

अबकी सावन

शून्य   में   पयोद   फिर   बरसे धरती   की   चुनर   हरी   हो खग   कलरव   के   मिसबोल   हो खेतों   बाग  -  बगान  में   खिलकती  हो   मुस्कान  अरमान  दिल   के  जो  गुप ,  आज  सारे  पूरे  होते  हो गायों  का  रँभाना   और    ग्वाल   बाल   का   बंसी   बजाना  इस   बरखा   ऋतु   चहुँओर   हरियाली   फिर   हो ।