स्वदेश प्रेम - रामनरेश त्रिपाठी की कविता
अतुलनीय जिनके प्रताप का ,
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर ।
घूम - घूम कर देख चुका है ,
जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर ।।
देख चुके है जिनका वैभव ,
ये नभ के अनन्त तारागण ।
अगणित बार सुन चुका है नभ ,
जिनका विजय - घोष रण - गर्जन ।।
शोभित है सर्वोच्च मुकुट से ,
जिनके दिव्य देश का मस्तक ,
गूँज रही है सकल दिशाएँ ,
जिनके जय - गीतों से अब तक ।।
जिनकी महिमा का है अविरल ,
साक्षी सत्य - रुप हिम - गिरि - वर ।
उतरा करते थे विमान - दल
जिसके विस्तृत वक्षः स्थल पर ।।
सागर निज छाती पर जिनके ,
अगणित अर्णव - पोत उठाकर ।
पहुँचाया करता था प्रमुदित ,
भूमंडल के सकल तटों पर ।।
नदियाँ जिसकी यश - धारा - सी
बहती है अब भी निशि - वासर ।
ढूँढ़ो उनके चरण - चिन्ह भी ,
पाओगे तुम इनके तट पर ।।
विषवुत् रेखा का वासी जो ,
जीता है नित हाँफ - हाँफ कर ।
रखता है अनुराग अलौकिक ,
यह भी अपनी मातृभूमि पर ।।
ध्रुव - वासी , जो हिम में तम में ,
जी लेते है काँप - काँप कर ।
वह भी अपनी मातृभूमि पर ,
कर देता है प्राण निछावर ।।
तुम तो , हे प्रिय बंधु , स्वर्ग - सी ,
सुखद , सकल विभवों की आकर ।
धरा - शिरोमणि मातृ - भूमि में ,
धन्य हुए हो जीवन पाकर ।।
तुम जिसका जल - अन्न ग्रहण कर ,
बड़े हुए लेकर जिसकी रज ।
तन रहते कैसे तज दोगे ,
उसको , हे वीरों के वंशज ।।
जब तक साथ एक भी दम हो ,
हो अवशिष्ट एक भी धड़कन ।
रखो आत्म - गौरव से ऊँची ,
पलकें ऊँचा सिर , ऊँचा मन ।।
एक बूँद भी रक्त शेष हो ,
जब तक मन में हे शत्रुंजय !
दीन वचन मुख से न उचारो ,
मानो नहीं मृत्यु का भी भय ।।
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का ,
मृत्यु एक है विश्राम स्थल ।
जीव जहाँ से फिर चलता है ,
धारण कर नव जीवन संबल ।।
मृत्यु एक सरिता है , जिसमें ,
श्रम से कातर जीव नहाकर ।
फिर नूतन धारण करता है ,
काया - रुपी वस्त्र बहाकर ।।
सच्चा प्रेम वही है जिसकी
तृप्ति आत्म - बलि पर हो निर्भर ।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है ,
करो प्रेम पर प्राण निछावर ।।
देश - प्रेम वह पुण्य - क्षेत्र है ,
अमल असीम त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से जिसमें ,
मनुष्यता होती है विकसित ।।
also read -
कोटि कोटि कंठों से निकली आज यहीं स्वरधारा है !
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
आप सभी सुधी पाठकों के सुझावों का हार्दिक स्वागत है ।