देखो न माता का प्यार

तपती  धूप   में  मिल  जाए   हरे  -  भरे  पेड़ों  की  छाँव  कहीं

रुक   जाना   तुम   मेरे   लाल  वहीं 

बैठकर   उनके   पास   

तुम्हे   मिलेगी   शीतल   मंद  बयार

तितलियों   की   सुरगुराहट

और    पक्षियों    की   चहचहाहट 

चींटियों   की    लंबी    दृढ़संकल्पबध्द   कतार

कदाचित  मिल  जायेंगे   वहीं   बैठे   कुछ  और   पथिक

धूप   में    हारे     श्रम   करते    श्रमिक 

कुछ   क्षण   उनके   पास   जा    बैठ   विश्राम  कर  लेना

अपने   दुख  -  सुख  को   आपस   में    बतिया  बाँट   लेना

चबेने   की    गठरी    खोल   लेना  

अपने   साथ  अपने   अन्य   बंधुओं   को   भी   देना  वहीं  पर  

आस पास  कहीं  पर  लगी  हुई   मिल  जायेगी   प्याउ  कहीं

थोड़ा  सा   गुड   खाने   के   उपरांत   तुम   सब   पानी    पीना

फिर   राह     को    अपनी    बढ़ना 

देखो  न   माता   का   प्यार   गृह   में   जिसे   छोड़

अकेले  अपनी - 2  ख्वाहिशों   की   मंजिल  लिए  बढ़े  अकेले

तब   भी   रखती   है   कितना   स्नेह   अपार  करती   रहती 

जो   सदैव  ईश   से   यहीं   प्रार्थना  बारम्बार  कि  पथ  पर

विजय  हमारी   हो ,  अपनी  मंजिल  का  वह  अधिकारी  हो ।   

 

टिप्पणियाँ

  1. यार, आपकी ये कविता तो दिल को सीधे छू गई। पढ़ते-पढ़ते मुझे बचपन की वो गर्मियाँ याद आ गईं जब माँ घर से निकलते वक्त पीछे से आवाज़ लगाती थी, "धूप ज़्यादा है, कहीं पेड़ की छांव में रुक जाना"। आपकी पंक्तियाँ वही अपनापन और वही ममता ले आईं। जिस तरह आपने सफर, थकान, और माँ के आशीर्वाद को एक साथ बुन दिया, वो कमाल है।

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  2. बहुत सुन्दर और अपनेपन से पगी रचना ।मन्त्रमुग्ध हूँ इन अनूठे हृदयोद्गारों से, लिखती रहिए असीम शुभकामनाएँ ।

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  3. माँ की ममता से सरोवार बहुत ही भावपूर्ण हृदयस्पर्शी सृजन ।

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