पतंगें

पतंगें जलने को राजी है , दीये की लौ नहीं

तो  बल्ब  हाजिर    है ।

जब  सच्चा संकल्प हो मन में ठना ,

तब तू चट्टान सा दृढ़ हो मैदान में खड़ा

ना दो पग पीछे , ना दो पग आगे

वर्तमान में तेरा भूत और भविष्य दोनों तेरे 

साथ खड़ा जहाँ से प्रवाहित अनादि सृष्टिगंगा 

क्रम दिनरात सतत चला , नवांकुर नव

सृजन नवगीत का सोता वहीं से बहे चला

उत्थान पतन उसके माता - पिता

रुढ़ियों में कई बार जकड़ा गया  

गर्हित होते निरंतर जीवन निराशा में   

सतनाम महिमा का मुक्तहृदय भी मिला

पंचतत्व रची दुनिया निस्सार कैसे ?

जब तक न खुले हृदयकपाट , न जाना  

मन के भीतर ही छिपे राम अल्लाह ईशु

बुद्ध नानकदेव और तेरी आत्मरुप पहचान

रहा तू केवल शरीर ही    

आत्मा से बिल्कुल अनजान 

पर जब अंधियारे में उजाला होता है ,

मन में उम्मीद की हिलोरें उमंग उठती है ।

सांध्यबेला में धैर्य का उदय होता है ,

हर भेद हर संशय का निवारण होता है ।

अंतर मन के सारे कलुष मिट जाते है ,

जब अपने सतत् निश्छल प्रयासों से 

पतंगें निज अंतर दीपालोक से

एकाकार हो जाते है ।

सवेरे भोर बिखरे इन पतंगों के ये पंख 

साक्षी होते है वे ही ये सबकुछ कहे जाते है ।

 

 

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