कला : एक अंतस उद्भावना
कला देखते ही बनता है इनका जादू । अपने में कितना कुछ समेटे रहती है । एक तरफ ये हमारी विरासत अमानत धरोहर है , तो दूसरी तरफ मानव मन की रचनार्धिमता व उसके रचनाशील प्रधान गुण की सर्जना है । अतीव भावों को ग्रहण कर , एक के लिए क्रमशः अलग - अलग भाव , तो नजरिया भी अलग - अलग नेत्रों को अभिरामता आश्चर्य का सुख ही नहीं मिलता इन्हें देखकर बल्कि एक उद्भावना मन को गहरे उतरती है।
प्रकृति के सान्निध्य में मन जब विश्राम पा खुद को भुला देता है और एक अनन्य नाता जोड़कर परमचेतन तत्व सत् रुप में स्वयं को पाता है कुछ वैसा , बल्कि कल्पना का अलग चित्र मननयनों के समक्ष प्रत्यक्ष होता है । जीवन को प्रेरित करना उसे नितनूतन नवीन संकल्प चेतना से परिस्फुरित करना यहीं तो लक्ष्य है कलाओं का । जीवन की अंतहीन गहराइयों की अभिव्यक्ति ही तो कलाएँ है । मन को एक्राग करना कल्पना बुध्दि , मानवीय मूल्य - शील के भावों की सर्जना ; विराट ने जिस प्रकार अपनी अतुल्य सृष्टि से सबको सहकार के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से बाँधें रखा है , कला भी उसका एक लघु प्रयास है । विशुध्द नहीं , मगर मिश्रित सदा जीवंत उज्ज्वल कला उत्सव जब जमता है । देशकाल की सीमाएँ , आपसी भेदभाव वैमनस्य सबकुछ पीछ़े छूट जाता है और एक स्वर मुखरित हो उठता है - कला मानव को मानव के रूप में देखती है , प्राणिमात्र को अपने में विस्तार देती मानवता के लिए सतत प्रयासवान रहती है । कला मानव को संकुचित दृष्टि से निर्बंध करती है । कला अंतस को मुखरित करती है । कला जीवन की अभिव्यक्ति है ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
आप सभी सुधी पाठक जनों के सुझावों / प्रतिक्रियों का हार्दिक स्वागत व अभिनंदन है ।