सहज स्वीकार्य जीवन उत्कट स्वाभिमान
भरी दोपहरी मन की संवेदना ठंडी हो जाती है
चिलचिलाती धूप में अक्सर लोगों का
कर्त्तव्य ही उन्हें जिला लेता है
दुर्धुर्ष रुप है , पर अपने में स्वाभिमानी ,
उत्कट जीवंत स्वीकार्य है उसे
परिस्थिति की संपन्नता विपन्नता से कभी विचलित नहीं हुआ
सहज मुस्कान सहज आँसू , यहीं उसकी परिभाषा
वह बन्धन में भी निर्बंध कमलवत है
उसकी आकंक्षा फूलों की तरह कोमल और
चट्टानों की तरह दृढ़ है ,
खेद नहीं व्यवधान पर मुश्किल मैं रोता हूँ ,
छुप के रोता हूँ ! तो क्या हुआ ?
रोना हँसना गाना ये सब अधिकार है मेरा
सच पूछिए ! ये जो दिन दोपहरी मैं यहाँ खड़ा
गन्ने का रस बेच रहा हूँ ,
हरेक बार मेरी संवेदना अनेक प्रश्न करती है ,
मेरा बालहृदय उन्हें व्यक्त नहीं कर सकता
पर रात खुले आसमान को तकते तकते
नींद आ जाती है , चूँकि भरी दोपहरी
आँखों में नींद खुद नहीं आती जो
फिर भी शिकायत कैसी ? मैंने सीखा है
रहके जीवन की पाठशाला में बहुत कुछ
क्या हुआ जो पैरों के कदम किसी बंद दीवारों
की तथाकथित पाठशाला में ना पड़े
जीवन का हिसाब - किताब
दुनियादारी का व्यवहार सबकुछ ...।
मैं सहज हूँ अपने इस काम के साथ
आप जानते होंगे कर्म ही पूजा है
इस भाव के साथ मैं ईश्वर की पूजा करता हूँ
अपने भाग्य को नित गढ़ता हूँ
सहज स्वीकार्य मुस्कान के साथ और जो किहीं चोट लग
जाए तो दुख का भी सहज होकर स्वागत करता हूँ ।
आपकी भाषा में कहूँ तो यही मेरा जीवन दर्शन है ।
इस पथ से होकर मैं इस जीवन को जीता हूँ ।
सुन्दर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंवाह।
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