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दुनिया के रंग सारे

ओ   रे     राधा    के    श्याम ओ    रे    यशोदा    के     लाल मोहे     रंग     दो    आज    ऐसो   चटक    लाल   गुलाल दुनिया    के    रंग    सारे    पीछे    फीके     पड़     जाए  दुनिया     के     रंग     सारे   पीछे     फीके     पड़     जाए  मेरे    पैरों    में   भर   दो    ऐसी   ताल

तालमेल हीं जुदा है ।

आजकल   यहीं   मसल्ला   गर्म   है । बच्चों   के    भविष्य   को   लेकर   माँ  -   बाप    चिंतामग्न   है । एक  -  पीढ़ी    दूजी   पीढ़ी   तीसरी    पीढ़ी के    बीच    संघर्ष   का   व्यवधान   बड़ा   है । कहाँ   जाए    किससे   कहे   अपनी   दुविधा जब   आपसी    समझ    का तालमेल    हीं     जुदा   है ।

जिस दिन ...!

भाव   भी   मेरा   अभाव   भी   मेरा जिस   दिन   इन    सबको   त्याग   दूँगी हर   बंधन    से     मुक्त    स्वयं    से    उन्मुक्त    हो असीम    अंतहीन    परम   चैतन्य   से मिल     अगाध    आनंद - कुँज    को पाऊँगी    अपनी    सितार   में   मिला   उसे मधुर    राग    जगजीवन    विश्राम   का

मरा मरा करके

मरा    मरा       करके      तुमने   राम      नाम      बतलाया  तुतुलाती     बोली      को     तुमने   इतना     कुछ      समझाया  थाम     के      मेरी     उँगली    मुझको     काँटों    में    चलना    सिखलाया  अकेले    पथ     पर     भी     निडर    हो आगे     बढ़ना     सिखाया सुख  -   दुख    जीवन   का   अभिन्न    भाग   है

दो मिनट

वृक्षों   पौधों   पर   पतझड़    वसंत   के    साथ    छोटे    सुरखलाल    रक्तरुप    नन्हें   कपोले    खिल   आए   है , टहनी   अभी   खाली   खाली    है पर    अभी   भी   कुछ    पत्ते   सूखे

शब्दों को रहने दो !

शब्दों   को   रहने   दो शब्दों    को    कुछ    ना    कहने   दो ये   भावों   की    वीणा   की   झंकार   है  ये   अन्तर्मन   का   मधुर   सहकार्य   है  ना   सुन   कर  भी   कैसे   अनसुना   करो  के , कहे   कि    इस   वीणा   की   हरेक   तार

मुझ थके को

धरा   पर   स्वप्न    सजाए   जीता   है   जीव खोजता    है    परमेश्वर    को कहाँ   मिलेंगे   ईश मन   का    हारा   तन    की    दुर्बल   छाया  आँचल    मलिनता    का  दंभ   द्वेष   और   घृणा   का   खारा   सागर ईर्ष्या   की   अग्नि   प्रचण्ड   नेह   दाहक

स्नेह ममता का

प्रातः   की   धूप   लगती   है  प्यारी  वो   माँ   बन  लुटाने   जो  आ   जाती  है इस   जग   पर   अपनी   ममता   सारी आँचल  में   भर   लेती   है  अपने  प्यारों  को

शर्बत

गर्मियों       का     मौसम    जब    तपता चौराहों   पर   ,   गलियों    में गन्ने    का    ठंडा    मीठा    रस    तब    बिकता खट्टा    नींबू     मौसमी    शर्बत     कच्ची    केरी     जलजीरा     पुदीना    और    शर्बत  - ए -  खसखस

मोहन मुरलिया बंसी बजाए

मोहन  मुरलिया  बंसी  बजाए।  जागी  जागी   जागी  जाए  जग  की  कलियाँ मोहन  मुरलिया  बंसी  बजाए।  बजाए  मोहन  मुरलिया  बंसी  बजाए  जागी जागी  जागी   जाए  जग  की  कलियाँ  मोहन   मुरलिया  बंसी  बजाए। 

देखो बंसत बहार आई

देखो   बंसत   बहार   आई   और   संग     पतझड़    की   बात   आई  सहजन    की    डाली    पे   फिर फूली    फूलों    की    बहार    आई  पतझड़    के    जीर्ण    होते    पीले पत्तों    की    गहन    होती    उच्छवासों   में

शिवशक्ति

नभ   के    सितारे    आज   आँखों   के    मोती    बन    रीत   गए । स्वप्न   की   आकाशगंगा   पार   न पा   सकी  । विवर्त    की    हलचल   में   सहसा    उत्थित   गर्व    माटी    बन    माटी   का   हो   गया , आशा   की   किरण   ने   फेरी   जो   रोशनी  एक   नई  ,   मेरा   अंत    मेरे   नवजीवन का    नवगीत    हो   गया । वास्तव   की    यथार्थ    भूमि   पर अशुभ  क्षणिकाएँ   काली  घटा  बन  छाई  थी  अभिमान   का   विध्वंसक   स्वरुप  गहन    मोह    बन    क...

झाँसी की रानी की समाधि पर

  इस  समाधि  में   छिपी  हुई   है , एक   राख   की   ढेरी । जल   कर   जिसने  स्वतंत्रता  की , दिव्य   आरती   फेरी ।। यह  समाधि ,  यह   लघु  समाधि   है , झाँसी   की   रानी   की । अंतिम   लीलास्थली   यही   है , लक्ष्मी   मरदानी   की ।।

स्वदेश प्रेम - रामनरेश त्रिपाठी की कविता

अतुलनीय   जिनके   प्रताप   का , साक्षी   है   प्रत्यक्ष   दिवाकर । घूम  -  घूम   कर   देख  चुका  है , जिनकी   निर्मल   कीर्ति   निशाकर ।। देख   चुके   है   जिनका   वैभव , ये   नभ   के   अनन्त  तारागण । अगणित   बार   सुन  चुका  है   नभ , जिनका   विजय - घोष   रण -  गर्जन ।।

नदी - केदारनाथ सिंह की कविता

अगर   धीरे   चलो वह   तुम्हें   छू   लेगी दौड़ो   तो   छूट   जायेगी   नदी अगर   ले   लो   साथ वह   चलती   चली   जायेगी   किहीं  भी यहाँ  तक   की  कबाड़ी  की  दुकान  तक  भी छोड़   दो

भारत माता का मंदिर यह

  भारत  माता  का  मंदिर  यह समता   का   संवाद   जहाँ , सबका  शिव  कल्याण   यहाँ  है  पावें   सभी  प्रसाद  यहाँ । जाति  धर्म   या   संप्रदाय   का , नहीं   भेद -  व्यवधान  यहाँ , सबका   स्वागत   सबका   आदर सबका   सम  सम्मान   यहाँ ।

चींटी - सुमित्रानंदन पंत की कविता

चींटी   को   देखा ?  वह  सरल ,  विरल ,  काली  रेखा तम  के  तागे  सी  जो  हिल - डुल चलती  लघुपद  पल - पल  मिल - जुल वह   है   पिपीलिका  पाँति ! देखो  ना ,  किस  भाँति

सच्चा संघर्ष

सच्चा   संघर्ष   जीवन   का  , अपने   से   बढ़कर   पर  के  हित  का , भावबोध  ,  जीवन  दृष्टि   विस्तार  का , शून्य  से  हो  संतृप्त  आत्मज्योति  प्रकाश  का ,  निर्विकार   मुक्त   चेतना । साकार  से   निराकार   का ,  अनन्त  में व्याप्ति   उस   एक   असीम   पारावार  का , मन   बन   कहती   जो   अनेक   कथा    कथा   -   सूत्राधार   का ।

राम नाम का उर में ध्यान धरे

बन   न   क्लांत   ओ   विवर   बीच पथिक    अनजान निशा   की    गहन   अंध   में भी   खिलती   चंद्र   ज्योत्सना सितारों    की    जगमग   से   सजता   है व्योम    का     अनन्त    पट्टचित्र । श्वेत    कमल    की    पुष्प   शोभा   सी कुमदिनी    साधना    सा    मन   बनाती ।

तुम भूल न जाना जीवन को

सूने आकाश  में  एक अकेली पतंग   जीवन  को भूल  न  जाना  निर्जन पथ अकेला  ,  नही  स्नेहबंधन डोर  न  ममता  की  कोर , अत्यन्त  यह