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ममता - जयशंकर प्रसाद की कहानी

रोहतास     दुर्ग     के     प्रकोष्ठ    में   बैठी     हुई    ममता   ,   शोण    के   तीक्ष्ण     गम्भीर     प्रवाह   को    देख    रही    है ।  ममता    विधवा    थी ।  उसका    यौवन     शोण    के    समान   ही    उमड़    रहा    था ।   मन    में   वेदना ,   मस्तक   में   आँधी  ,   आँखों    में    पानी     की     बरसात   लिये  ,    वह    सुख     के    कंटक  -   शयन     में     विकल     थी । 

मोहन मुरलिया बंसी बजाए

मोहन  मुरलिया  बंसी  बजाए।  जागी  जागी   जागी  जाए  जग  की  कलियाँ मोहन  मुरलिया  बंसी  बजाए।  बजाए  मोहन  मुरलिया  बंसी  बजाए  जागी जागी  जागी   जाए  जग  की  कलियाँ  मोहन   मुरलिया  बंसी  बजाए। 

देखो बंसत बहार आई

देखो   बंसत   बहार   आई   और   संग     पतझड़    की   बात   आई  सहजन    की    डाली    पे   फिर फूली    फूलों    की    बहार    आई  पतझड़    के    जीर्ण    होते    पीले पत्तों    की    गहन    होती    उच्छवासों   में

शिवशक्ति

नभ   के    सितारे    आज   आँखों   के    मोती    बन    रीत   गए । स्वप्न   की   आकाशगंगा   पार   न पा   सकी  । विवर्त    की    हलचल   में   सहसा    उत्थित   गर्व    माटी    बन    माटी   का   हो   गया , आशा   की   किरण   ने   फेरी   जो   रोशनी  एक   नई  ,   मेरा   अंत    मेरे   नवजीवन का    नवगीत    हो   गया । वास्तव   की    यथार्थ    भूमि   पर अशुभ  क्षणिकाएँ   काली  घटा  बन  छाई  थी  अभिमान   का   विध्वंसक   स्वरुप  गहन    मोह    बन    क...

हल्दीघाटी - श्यामनारायण पाण्डेय कृत

मेवाड़ -  केसरी   देख  रहा , केवल   रण  का  न  तमाशा  था । वह   दौड़ -  दौड़   करता  था  रण , वह   मान -  रक्त  का  प्यासा   था। चढ़कर   चेतक  पर   घूम  -  घूम  , करता   सेना   रखवाली  था ।

झाँसी की रानी की समाधि पर

  इस  समाधि  में   छिपी  हुई   है , एक   राख   की   ढेरी । जल   कर   जिसने  स्वतंत्रता  की , दिव्य   आरती   फेरी ।। यह  समाधि ,  यह   लघु  समाधि   है , झाँसी   की   रानी   की । अंतिम   लीलास्थली   यही   है , लक्ष्मी   मरदानी   की ।।

स्वदेश प्रेम - रामनरेश त्रिपाठी की कविता

अतुलनीय   जिनके   प्रताप   का , साक्षी   है   प्रत्यक्ष   दिवाकर । घूम  -  घूम   कर   देख  चुका  है , जिनकी   निर्मल   कीर्ति   निशाकर ।। देख   चुके   है   जिनका   वैभव , ये   नभ   के   अनन्त  तारागण । अगणित   बार   सुन  चुका  है   नभ , जिनका   विजय - घोष   रण -  गर्जन ।।

नदी - केदारनाथ सिंह की कविता

अगर   धीरे   चलो वह   तुम्हें   छू   लेगी दौड़ो   तो   छूट   जायेगी   नदी अगर   ले   लो   साथ वह   चलती   चली   जायेगी   किहीं  भी यहाँ  तक   की  कबाड़ी  की  दुकान  तक  भी छोड़   दो

भारत माता का मंदिर यह

  भारत  माता  का  मंदिर  यह समता   का   संवाद   जहाँ , सबका  शिव  कल्याण   यहाँ  है  पावें   सभी  प्रसाद  यहाँ । जाति  धर्म   या   संप्रदाय   का , नहीं   भेद -  व्यवधान  यहाँ , सबका   स्वागत   सबका   आदर सबका   सम  सम्मान   यहाँ ।

चींटी - सुमित्रानंदन पंत की कविता

चींटी   को   देखा ?  वह  सरल ,  विरल ,  काली  रेखा तम  के  तागे  सी  जो  हिल - डुल चलती  लघुपद  पल - पल  मिल - जुल वह   है   पिपीलिका  पाँति ! देखो  ना ,  किस  भाँति

सच्चा संघर्ष

सच्चा   संघर्ष   जीवन   का  , अपने   से   बढ़कर   पर  के  हित  का , भावबोध  ,  जीवन  दृष्टि   विस्तार  का , शून्य  से  हो  संतृप्त  आत्मज्योति  प्रकाश  का ,  निर्विकार   मुक्त   चेतना । साकार  से   निराकार   का ,  अनन्त  में व्याप्ति   उस   एक   असीम   पारावार  का , मन   बन   कहती   जो   अनेक   कथा    कथा   -   सूत्राधार   का ।

राम नाम का उर में ध्यान धरे

बन   न   क्लांत   ओ   विवर   बीच पथिक    अनजान निशा   की    गहन   अंध   में भी   खिलती   चंद्र   ज्योत्सना सितारों    की    जगमग   से   सजता   है व्योम    का     अनन्त    पट्टचित्र । श्वेत    कमल    की    पुष्प   शोभा   सी कुमदिनी    साधना    सा    मन   बनाती ।

तुम भूल न जाना जीवन को

सूने आकाश  में  एक अकेली पतंग   जीवन  को भूल  न  जाना  निर्जन पथ अकेला  ,  नही  स्नेहबंधन डोर  न  ममता  की  कोर , अत्यन्त  यह 

अनेकों रवों की प्रार्थना

कुछ  पल  इस  हरी  भूमि  पर  बीत  जाए ।  कुछ  न  कहके  कुछ   मन  को  कहने  दो । मेरे  ईश्वर   तू   कितना  बड़ा  चितेरा  है । तूने  कितने  ही  रंग   सजाये  इस  दुनिया  में हरेक  को  अपने  एक  अलग  अंदाज  में  सजाया   क्या   खूबी   से   हरेक   रेखा  रंग   में   प्राण   भरे  ।   तू    कितना   बड़ा   चितेरा    है । भाव   को    अन्तर   में   छू   ले   पल   में   मुस्कान   मुख   पे   सजाये । कुछ   न   भी   कहे   ।   तेरी   सर्जना   में

मेरे घर आवें राजाराम

  बंदनवार   बाँधों   द्वार ,  सजाओ  घरबार  सजाओ  घरबार  ,   दीप  जलाओ  ,  मंगल  गाओ , दीप  जलाओ ,  मंगल  गाओ ....। मेरे  घर   आवें   राजाराम  , मेरे  घर  आवें  राजाराम ।

अन्तर्मन की लौ

मैं   दीप   बन   जलूँगी पथ   प्रकाश   बन   हर   तम  में   लौ  भरुँगी । झंझा  हो   तूफां   आँधी   बिजली  पानी  हो   या

उठो धरा के अमर सपूतों

उठो   धरा   के   अमर   सपूतों  पुनः   नया   निर्माण    करो । जन   जन   के   जीवन   में    फिर   से नई   स्फूर्ति ,   नव    प्राण    भरो । नया   प्रात    है ,   नई    बात    है , नयी   किरण   है ,   ज्योति   नई  ।

प्रातः उजियारे दीप जला

प्रातः    उजियारे    दीप    जला कनक -  मनिमय   परिकुंर    शोभा  -  शिखर   बना । हाँस - विहाँस - परिहास    कमल   खिले भ्रमर    गुंजित    रव सखी !  पीछे -   पीछे    चले । वनदेवी  -   अर्चन   क्षण    का    कण- कण    सौभाग्य     भरा  ! हर    शब्द    लय -  तालबध्द    संगीत   भरा  , जो    सबका    मधुर   सहकार   बना ।

वाणी वाग्शेवरी मधुर संगीत भरी !

वाणी    वाग्शेवरी    मधुर    संगीत   भरी शक्ति   की   स्वरुप   देवी  , चैतन्यता   का    प्रतिरुप    देवी   शारदा  । प्रणत    शिखर    नित   स्तुतिगान   लय   भरा ज्योत    प्रकाश    मन    में    सजा संकल्प    में     हर     वचन    कुशल   बना ।

वीर तुम बढ़े चलो

वीर   तुम   बढ़े   चलो  !  धीर   तुम  बढ़े   चलो  ! हाथ   में    ध्वजा   रहे    बालदल   सजा   रहे ध्वज    कभी    झुके    नहीं ,  दल   कभी   रुके   नहीं । वीर   तुम    बढ़े    चलो  !   धीर   तुम    बढ़े   चलो  !

विश्रांत हो जाती

रोज    हवाओं    का    झोंका   , उस   सकरी    -    सी    गली   से    होकर   हौलें   से  मस्त    बहारों    को     हिलोरे    देता   हुआ   गुजरता  दीवारों     के      बीच     से पत्रों     को      रव      दे      जाता    है ।