प्रातः उजियारे दीप जला
प्रातः उजियारे दीप जला
कनक - मनिमय परिकुंर शोभा - शिखर बना ।
हाँस - विहाँस - परिहास कमल खिले
भ्रमर गुंजित रव
सखी ! पीछे - पीछे चले ।
वनदेवी - अर्चन क्षण का कण- कण
सौभाग्य भरा !
हर शब्द लय - तालबध्द संगीत भरा ,
जो सबका मधुर सहकार बना ।
घर से निकला पथिक चलने को अनजान सफर
चुनौतियाँ बनी हमसफर ।
काँटों में चलकर मजबूत बना ,
फूलों की शोभा में मानस का रंग खिला ।
बात-बात में आ पहुँचा द्वियामी - दोलन - दर्जे पे
शक्ति की होगी परीक्षा
देखेंगे अब हम अनुभव का सीखा सलीका ।
नयनबाणों में बेध लक्ष्य
नजर के फेर में केवल एक सत्य ।
अडिग अविचल निश्छल - सा दृढ़ बन
जीत समर जायेंगे ।
रुके पथिक तो हार स्वयं से जायेंगे
निराशा रही सर्वथा ही व्यर्थ
उठ संघर्ष घूर्णन में आशा - दीप जलता है ।
बूँद - बूँद से जो सागर भरता है ।
चलते रहने से ही मुसाफिर मंजिल को मिलता है ।
बाधाएँ अनेक बनती है , मन का फेर जो बीच
समरांगण प्रतिबिंब ला मनो - ज्वालाएँ
दहकाती है ।
द्वंद्व - जाल निर्द्वन्द्व हो निकल
प्रतिकार भावना अहं की सँभल ,
सत्य भावना प्रेम सहकार की मिलकर चल ।
निराशा की रात में फिर होगा
अरुणोदय प्रात में ,
संचित शक्ति ज्ञान मन की पहचान
निश्चय कर उनको जान ।
लगन निष्ठ साँचा हर रुप में तत्पर ,
हरेक कदम अंगारों की अग्नि में सत्य से तपकर ।
स्वर्ण निर्मित होगा , दृढ़ बनकर ।
पल - पल लोहित छिटकती सी दाहक चिंगारियाँ
धैर्य से होंगी पार ।
हर रुप में परख होंगी , सत्य , स्नेह और साहस की
अविकल मौन भरे शांत शक्ति स्फुरित मन में
लक्ष्य भावना पुष्टि उमंग , उल्लास , संतोष की ।
पूर्ण समर्पण स्वरुप मिलेगा ।
प्रभु वंदन में सतत् शशि झुकेगा ,
मात - पिता चरणों का शुभाशीष मिलेगा ।
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