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विश्व में अटल सत्य के चिरवास का .!

ओ !  इतिहास   की  घड़ियाँ  चुप   खड़ा   निस्तब्ध  क्या  तूने  पहने  ली  बेड़ियाँ  अचंभा  में  पड़ा शून्य  को  तकता निर्जन  में  अकेला  जर्जर  वृध्द  ? परिवर्तन  की  आंधियाँ बदल  देती  है  कितना  कुछ

जब सबकुछ है

जब सबकुछ है , तो उदासी का ये रुप थोड़ा - थोड़ा परेशान करता  मैं नहीं जानती , क्या बात है जो मन व्यथित बार - बार उदोलित होता है  दिशाएँ प्रवर दाहक चिंगारियों की छटकन आज भी कहाँ इस अंतर्द्वन्द्व का अंत हुआ है आज भी अपने उत्तर का याचक रहा प्रश्न

यह घर है , कोई मकान नहीं

दीवारें बोलती है , अकेला घर केवल एक  मकान होता है जहाँ दीवारों पर सबकुछ  सफेद और सूना होता है कहाँ कोई पत्ता बागीचे में खिल पाता है छाई निस्तब्धता ऊँघते वातावरण में वो फिर छिप जाता है जलती धूप उसकी जान लेती , व्याकुल प्यास उसे और  अकुलाती है मनमसोस के फिर वह उम्मीद

अंतर चुप रहने का

एक   -     कई  बार   बस   तुम   इसलिए   हारे कि   तुम   चुप   बने   रहे सही - गलत   अच्छे -  बुरे   के   प्रति   कुछ   इंगित  नहीं  किया निरीह   विरक्त  पाषाण  संवेदना - सहवेदना  से  अलग -  थलग खुद  को   कैद   में  बंद   कर  धृतराष्ट्र -  गाँधारी  हो   गए  तुम ! तुम्हारा  पश्चाताप   ही   तुम्हारी   विकट  सजा  हुई  ।