यह घर है , कोई मकान नहीं

दीवारें बोलती है , अकेला घर केवल एक 

मकान होता है जहाँ दीवारों पर सबकुछ 

सफेद और सूना होता है

कहाँ कोई पत्ता बागीचे में खिल पाता है

छाई निस्तब्धता ऊँघते वातावरण में वो

फिर छिप जाता है जलती धूप उसकी

जान लेती , व्याकुल प्यास उसे और 

अकुलाती है मनमसोस के फिर वह उम्मीद

धरी की धरी रह जाती है ,

अब स्वतंत्र पंछी लौट के ना आए   

तो क्या ; बदल लो सोच अपनी

आँसूओं में जीकर अपनी ये सुंदर 

शकल क्यों खराब करते हो  

क्या तुमने रोने के लिए इतना कुछ  

किया था , यही था क्या बस तुम्हारा

जीवन जो ना आये तो ना आये

अब जबकि तुम स्वतंत्र हो  

अनेकानेक थोपी गई जिम्मेवारियों से

अपने लिए अपने खो गए सपनों से

दो चार बातें तो करो  

चलो दराज से कोई किताब निकाले 

अपनी पहली कक्षा में स्कूल के बीच

इन बहानों फिर घूम आए  

तुम तो चित्रकारी भी करती हो

बहुत अच्छी , चलो आज मेरा ही कोई 

अच्छा सा चित्र बना दो , नहीं तो अपनी

ही कल्पना से कुछ अनोखा रच डालो

याद है ना वो अलमारी के कोने में

दबी रखी खूबसूरती से कढ़ी फुलकारी

वहीं बगल की दराज में सुई तागे   

का भरा बक्सा रखा है , चलो ना   

बहुत दिन हुए आज आजमाओ तो  

किहीं इन रोज की भागा-दौड़ी में अपनी

कला तो नहीं खो बैठी तुम चलो जल्दी से

मेरे लिए एक अच्छी सी फुलकारी बना दो

देखो ना अभी कुछ समय पहले ही वर्षा हुई है

पूरा माहौल खुशनुमा हो गया है

बंद किवाड़ें खोल दिए गए है

शीतल हवा धीरे धीरे बह रही है ,

पर जब तुम उदास रहो के तो

उदासी का घेरा फिर घिर जाएगा 

कर्त्तव्य समझकर ही अपने प्रति भी कुछ 

निभा लो  चलो आँसू पोछ़ो और एक

गहरी साँस लो जीवन अभी शुरु हुआ है

वृध्दावस्था ने फिर बालरुप में जन्म लिया है 

जहाँ माता की गोद होती है , पिता का स्नेह होता है ।

मित्रों का साथ होता है न किसी से कोई 

बैर न कोई शिकायत दिल जहाँ बिल्कुल 

साफ और सच्चा होता है ,  है न । तो

फिर तज दो यह उदासी यह सूनापन ,

क्योंकि दीवारें अब और देर तक चुप

नहीं रह सकती ।  

यह  घर  है   कोई  मकान  नहीं ।


 

टिप्पणियाँ

Popular posts

अजन्ता - भगवतशरण उपाध्याय रचित निबन्ध

स्नेह ममता का

दीप - भाव

पतंगें

पतझड़ की पाती

हँसो हँसो खूब हँसो लाॅफिंग बुध्दा

विश्रांत हो जाती

प्रातः उजियारे दीप जला