पतझड़ की पाती
पतझड़ की हवा का मस्त झोखा ,
दूर से आता विभ्रांत पथिक ,
मन को पग - पग , लय दे ।
फिर बिखेरे , अपना संगीत सुरीला ।
जीवन - सार क्या ?
वो नयन - चक्षु खोल बतलाता जाता ,
आरोहण - अवरोहण क्रम का आना और जाना ।
पुरातन हुई अब , जिसने हरेक मौसम को
अपनी आँखों देखा , हर रंग के अनुरुप ढली
फूल - फल संग खिली ।
गर्म थपेड़ों के विकरालोपरांत
ठंडी बयार
और शीतलता की छाँव बनी ।
जिया जीवन ममता का ,
करुणा की रस - धार बनी ।
अब तुम जब हो रही हो विलीन ,
हार नहीं , ओ ! पतझड़ की पाती !
ये तो है तेरा महत्तर समर्पण !
वो जो ऊपर किसलय डोल रहा है ।
तेरा ही तो अक्स एक नवीनता में उस डाली पे झूल
रहा है ।
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