देखो बंसत बहार आई
देखो बंसत बहार आई और
संग पतझड़ की बात आई
सहजन की डाली पे फिर
फूली फूलों की बहार आई
पतझड़ के जीर्ण होते पीले
पत्तों की गहन होती उच्छवासों में
एक नए कल के अवतीर्ण का संदेश छिपा
उमंगता मधुरता को पाग देती
जीवन को एक नया राग देती
कहती कथा धूप - छाँह और
जीवन की कल आज और कल की
बीते क्षण की आते स्वप्न की
जीते आज के इस महत्वपूर्ण पल की
राहों में बहती हवाएँ कानों के पास आ
बन के तृण - पत्र .....
मन का कोई अनसुना गीत सुनाये
कहे जाए बन हमसफर अपनी मंजिल का
साथ कथा ये सदियों पुरानी
चलते - चलते बदले कितने खोल
अब आयी है हो के आजाद
अनन्त के नभ में उड़ने की बारी
रह न जाए अब कोई बंधन बाकी
होकर शून्य सी हल्की जा विस्तृत
में मिल पूर्ण होने की ये
चिरप्रतीक्षित आँधी .....!
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