सबकुछ स्पष्ट सुनाई देगा

उत्तरार्द्ध     यों     उतर    गया

समय     की     रेत     में    कुछ   तपिश

अभी  भी   बाकी     थी

ढलते  - ढलते    दिन

आज   भी     एक   उम्मीद    है

एक    पोर    अंकुरण    सा

धरती     की    गोद    में

धानी    रंग    पताका    लिए

नवजीवन    का     विश्वास    दिलाती

भटकते     से     उलझे    मन    को

मानो    आसरा     मिलता    है

बिखरी   हुई   बातों   को   एक    सूत्र    में

पिरो    देने    को    अगर    कुछ   जानना

समझना   सीखना   है   तो    इन    से    सीखो

सदैव  निस्वार्थ    परमार्थभाव   ही    पूँजी   जिनकी

ये   नदियाँ ,   ये    हरी   वनस्थली ,

ये   पर्वत - पठार  , ये    विस्तृत   फैले   घास   के   मैदान

ये   मरुथल  , ये   समंदर   विशाल

ये   धरती ,   ये   सूर्य   ये   चंद्र   , ये   तारकगण

ये   विहगवृंद  ,  ये    सब    गुनगुनाते    गीत    कोई   सच्चा

जिसे    सुनना …   सबकुछ    उसी   स्वर   में    छिपा   है

कान    लगाकर   सच्चे    हिये    से    सुनना

कुछ   वक्त   अपने   लिए   निकालकर

इसे   डूबते   हुए    साँझ   के   सूर्य   में    सुनना

पूर्वार्द्ध    उत्तरार्द्ध    संपूर्ण   रुप   में    सुनना

कुछ    वक्त    अपने   लिए    निकालकर

इसे    डूबते   हुए   साँझ   में    सुनना

कहने     की    जरुरत   नहीं

सबकुछ    स्पष्ट    सुनाई    देगा ।


●  एक  अन्य  रचना  -   जिस दिन


टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूब ... खामोशी की आवाज़ गहरी होती है ...

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  2. ये बात बहुत खूबसूरती से बताई गई है कि ज़िंदगी की भागदौड़ में हम अक्सर इन छोटी-छोटी चीज़ों की अहमियत भूल जाते हैं। साँझ के वक्त थोड़ा समय निकालकर ये सब महसूस करना सच में दिल को सुकून देता है।

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