हीन , मगर नहीं किसने कहा कि तुम हीन हो और अगर कोई अपने में कहता है तो कह ले , किसी के कहने मात्र से तो कोई हीन नहीं हो जाता है , हीन तो तुम तब कहलाओगे जबकि तुम अपने को हीन मानोगे , अपने भीतर छिपे आत्मविश्वास और रचनात्मिका शक्ति को जब तक तुम संबल न दोगे , तब तक प्रभु भी कुछ नहीं कर सकते , क्योंकि ईश्वर की मदद पाने के लिए पहले हमें अपने-आप से प्रयास करना पड़ता है ।
यूँही सबकुछ को अपने आँखों के समाने घटित होता देखा हाथ - पर - हाथ धरे बैठे रहना ही हीनता है , हम अगर प्रयत्न करे तो क्या मुमकिन नहीं है ? जरुरत तो बस इतनी है कि जमाने के शोर की परवाह किए बगैर अपने कर्त्तव्यपथ पर चलते चलो । अपने में सच्चा रहकर पूरी ईमानदारी के साथ प्रयास करो कितनी ही असफलताएँ क्यों न मिले , वे हमें प्रेरित ही करती है , न कि रुक जाने को कहती है । सर्वप्रथम अपनी आत्मशक्ति को जानो उसे जाग्रत करो कर्मठ बनो अपना खाली समय का भी सदुपयोग करो सत्संगति में अपना अमूल्य समय लगाओ क्योंकि सत्संगति सुविचारों की जननी है और सुविचार ही जीवन में शिवत्व और सुंदरता लाते है । कही - सुनी व्यर्थ की बातों को छोड़कर मौलिकता की ओर उन्मुख हो जो विनाश नहीं बल्कि सबकी भलाई का निमित्त बने । पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा समाधान की ओर बढ़ा जाए तभी प्रगति संभव होगी अन्यथा ट्रैफिक जाम की अव्यवस्था और उससे होने वाली असुविधा से कौन नहीं परिचित है । इतना सब जानकर भी अगर हम अपने मानसिक तेज को निराशा और द्वंद्व की अग्नि में निरर्थक जलाते रहे तो राख बनने में क्या देरी रहेगी और हीन तो फिर आप कहलायेंगे , तो अब सबकुछ आपे ही समझना है कोई हमें आकर जगाए इसकी प्रतीक्षा में रहे अपना समय मत बर्बाद करो , तुम स्वयं उठो अपनी सोई हुई चेतना को जगाओ और पूर्ण निष्ठा के साथ निष्काम भाव से कर्म में प्रवृत्त हो जाओ ।
हीनता दूसरों की बातों से नहीं आती, बल्कि तब आती है जब हम खुद को छोटा मान लेते है, ये बात बहुत गहरी लगी। आपने सही लिखा है कि भगवान भी तभी मदद करता है जब इंसान खुद मेहनत करे। हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना ही असली कमजोरी है।
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