उपनिषदों में दार्शनिक विवेचन

 उपनिषद्  वेदों  की  निर्मल  ज्ञानधारा  के  रुप  में  प्रवाहित  चिंतनमयी  पृष्ठभूमि  है  ,  जो  वेदों  में  वर्णित  ज्ञानतत्व  का विशद्  व्याख्यान  हमारे  समक्ष  प्रस्तुत  करती  है ।  यह  ज्ञानतत्व  हीं  दर्शन  का  सारतत्व  है। दर्शन  अपने सत्तत्व अथवा ज्ञानतत्व  को  प्रमुख  मानता है ।

उसकी सारी प्रक्रिया  इस  तत्व  के  चारों  ओर  क्रियान्वित  होती  है ,  जिस  प्रकार  दर्शन  में ,  किसी  वस्तु  अथवा  बिंदु  जैसे  एक  छोटे  से  पद  को लेकर  उसको  विविध  आयामों  में  रखते  हुए  उसके  व्याख्यान्वित  स्वरुप  को प्रस्तुत  करते  हुए   जीवन  में  आनन्द  की  प्राप्ति  अथवा  आत्मसंतुष्टि  के  मार्ग  से  उसको  जोड़  दिया  जाता  है  ।  स्थूल  को  सूक्ष्म  रुप  में  प्रस्तुत  करना ,  उसका जीवन  से  तादात्म्य  स्थापित  करना  हीं  दर्शन  का  क्षेत्र  है । उपनिषदों  में  वेदों  में  आयी ज्ञानचर्चा  का  इसी  रुप  में  सूक्ष्मता  के  साथ  विवेचन  किया  गया  है ।  इसका  कारण  यह  है कि  इसके  पूर्व  के  ब्राह्मण  ग्रंथ  जो  वेदों  की  पृष्ठभूमि  से  जुड़े  हुए  थे  । उनमें  तथा  साधारण  जीवन  में  कर्मकाण्डवाद  की  भावना  अधिक  जोर  पकड़ने  लगी  थी  ।  लोगों  के  सहज  जीवन  में  अब  नानाप्रकार  के  वस्तुविधान  का  स्थान  बढ़ता  जा  रहा  था  । सामान्यता  में   अब  अधिक   दिखावे  ने  प्रवेश  करना  शुरु  कर  दिया  था  ।  पुरोहित  वर्ग  में  अपने  विशेषाधिकारों  को  लेकर  महत्वाकांक्षा  बलवती  होने  लगी  थी  । इन  सब  में  आवश्यकता  ने  स्वयं  स्थान  बनाया  और  वह  आवश्यकता  दार्शनिक  चिन्तन  के  रुप  में  निकला  हुआ   उपनिषद्  रहे ।  उपनिषदों  का  विकास   कोई   एक  हीं  रात  की  बात  नहीं  है ,   अपितु   इन  सभी  परिस्थितियों  में  उनका  क्रमिक  विकास  हुआ  है  ।  आरण्यक  ग्रंथ  जिनका  प्रचलन   वनवासी  ऋषि -  मुनियों  के  मध्य  अधिक   था  ।   वे  उपनिषद्  के  हीं  प्रारम्भिक  स्वरुप  रहे  ।  जिनमें  हृदय  से  की  गई  प्रभु  भक्ति   और जनकल्याणकारी  कार्यों  की  ओर  संकेत  किया  गया  था  ।  हमारी  संस्कृति  में  लोकमंगल  की  भावना  का  एक  मजबूत  आधार   उपनिषदों  में  इन  पक्षों  पर  किया  गया  गंभीर  विशद्  चिंतन  रहा  है  ।   अतिथि  देवो  भवः ,  मातृ -  पितृ  देवो भवः ,  गुरुदेवो भवः ,  सत्यमेव  जयते  ,   ईशावास्यंसर्वम्  और  वसुधैव  कुटुम्बकम्  जैसे  आध्यात्मिक   सत्यता  से  परिपूर्ण  कल्याणकारी  सूत्रों  के  उद् -  घोषक  उपनिषद्  ही  रहे  है । अतः  उपनिषदों  की  महत्ता  उसके  ज्ञानपक्ष  के  कारण  मनुष्यों  का  मार्गदर्शक  होने  के  रुप  में  है  ।  उपनिषदों  के  महत्व  को   भारतीयता  की  महान  उपासिका   श्रीमती  ऐनीबेसेंट  ने  इन  शब्दों  में  व्यक्त  किया  है - "   यह  ज्ञान  मानव  चेतना  का  सर्वोच्च  फल  है । " 

डॉ ०  सर्वपल्ली  राधाकृष्णन  के  अनुसार  , "   मनुष्य  के  आध्यात्मिक   इतिहास  में  उपनिषदें  एक  वृहद्  इतिहास  की  तरह  है , और   पिछले  तीन  हजार  साल से  भारतीय   दर्शन   और  धर्म  को  बराबर  शासित  करती  चली आ  रही  है । " 

यह  भी  पढ़े  -  भारतीय ज्ञान परंपरा

टिप्पणियाँ

Popular posts

अजन्ता - भगवतशरण उपाध्याय रचित निबन्ध

दीप - भाव

विश्रांत हो जाती

लोक संस्कृति और लोकरंग