जीवन पूर्ण को
कड़वाहट घुल गई थी
जिस दिन मौन रहकर
सबकुछ सुना था
एकपक्ष रहता सदैव ही अधूरा
वार्ता मन से मन की हो ,
आत्म से परमात्मा की हो ,
अपरिहार्य तो दोनों है ,
जिनके बिना फिर ये संवाद अधूरा है ।
दिन को आवश्यक है जैसे रात
दुख को आपेक्षित है सुख
निराशा को मुखरित है आशा
का मंगलमय प्रात अरुणोदय
वैसे ही आवश्यक है
दोनों पक्षों का कहना और सुनना
तर्क - वितर्क पंडितों की बातें
जहाँ भक्तिभाव होता , वहाँ
धृष्टता उन्मादी लगे जग को
मेरा तो प्रत्यक्ष संवाद चलता
उस जग - पालनहारे से
मेरा क्या ? इसमें अधिकार बचा ?
उसने हीं तो यह संवाद उपहार दिया
जो बूँद से रच डाला अनन्त को
उसने हीं तो इन प्रश्नों को
आकार दिया ।
अनबूझ पहेली विरला सुलझाये ।
मेरा इससे क्या कोई सरोकार भला
मेरे मन से तो होकर जाती
सदैव सीधी सरल रेखा
नित नयनों से देखती संसार नया
हरि के प्रतिरुप बसते प्राण
सब में एक , क्या कीट - पतंगा
क्या मानव
कर्ता - धर्ता जगन्नियन्ता
सृष्टि का सूत्रधार , संवाद उसीसे
हँसी - खुशी दिल की हरेक
बात उसीसे भावों से छू लेता है
क्षितिज को करता - सा पार
खोल देता मुख पर पड़ा
आवरण युगों - युगों का पहरेदार
मुक्ता सी स्वछंद करती
निशदिन कीर्तन - नर्तन
गाती राग तुम्हारे
हर लेता सारा क्षोभ
जो छिपी थी किहीं
अन्तर्मन की लिये एक
गहरी ओंट , होकर अविमुक्त
मिल जाती ज्यों दर्पण समक्ष
खड़ी मैं , बात भी तब
पूर्ण होती जब अविचलित
धैर्य भव में धर करते
पार नैया बन आपे ही
आपन खैवया जा मिल
जाते अपने उद्गम - क्षेत्र से
उलटी बहती गंगा पा लेती
जीवन .... पूर्ण को .... !
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● आशादीप
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