माता के आँचल के बिखरे मोती
तेज हवाएँ लू लपट सूखे मैदानों में
हाहाकार प्रचण्डिका अग्निधार बाण
उफनती चिंगारियाँ लौहवर्ण सावधान
मनसा सावधान ! थोड़ा सोच-विचारकर
काम करो जहाँ भी जैसे भी संभव
हो सके अपनी धरतीमाता की पुकार सुनो
बनके जो चारों दिशाओं में गूँज रही
मजदूरों कामगरों बेबस बेजुबानों की आह
सुनो मानव ! मानव तुम हो धरतीमाता की संतान
कैसे हाथ पे हाथ रख बैठो के अपना फर्ज
क्या तुम भूलो के ? जीवन बन जाए घोर
अभिशाप जो ऐसा हुआ माता आकुल है
चटके घावों से रक्त बहे रहा , करुणादात्री हाय !
कैसे मान ले योग्यतम ही है श्रेष्ठ जीने को
कहा गई मानवता ? क्या वह माता के आँसू पर
द्रवित न हुआ ? चलो बस बहुत हुआ अब
मिलकर सब अपना कर्त्तव्य स्नेह निभाए
माता के आँचल के बिखरे मोती को पुनः सजाए !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 23 अप्रैल को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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