माता के आँचल के बिखरे मोती

तेज   हवाएँ    लू   लपट   सूखे    मैदानों    में

हाहाकार    प्रचण्डिका   अग्निधार     बाण

उफनती    चिंगारियाँ     लौहवर्ण     सावधान 

मनसा   सावधान  !   थोड़ा   सोच-विचारकर  

काम   करो    जहाँ   भी    जैसे   भी    संभव 

हो   सके   अपनी  धरतीमाता   की   पुकार  सुनो  

बनके    जो    चारों    दिशाओं   में    गूँज    रही

मजदूरों    कामगरों    बेबस   बेजुबानों   की   आह 

सुनो   मानव   !   मानव  तुम  हो  धरतीमाता   की   संतान  

कैसे   हाथ  पे   हाथ   रख   बैठो   के    अपना    फर्ज 

क्या   तुम    भूलो   के  ?    जीवन    बन   जाए   घोर

अभिशाप    जो     ऐसा     हुआ   माता   आकुल   है 

चटके   घावों    से   रक्त   बहे   रहा  ,   करुणादात्री   हाय  !

कैसे    मान    ले    योग्यतम    ही    है   श्रेष्ठ   जीने    को

कहा   गई   मानवता  ?   क्या   वह   माता   के   आँसू  पर

द्रवित   न     हुआ  ?    चलो    बस     बहुत   हुआ   अब  

मिलकर    सब     अपना      कर्त्तव्य     स्नेह     निभाए  

माता   के   आँचल   के   बिखरे   मोती   को    पुनः  सजाए  !




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