संदेश

मई, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक बूँद सुहानी

१  असंभावित   मौन   से   निकलकर  बारिश   की   टपटप   में    घुलना   है । चुपचाप    भीगी    हरी   घास   पर    चलना   है मन   के   सारे   कलुष   को   इस   बारिश   में   धुलना  है 

वृंदावन तट रेनू ... मन से जो पास हो

वृंदावन तट रेनू ... मन से जो पास हो । वहाँ बन्धन तुच्छ हो जाते है । सीमाएँ भी तभी तक रहती है जब तक हृदय कुलष से छूटकर प्रेमभाव की वृहत्तर भूमि प्राप्त नहीं कर लेता है और त्याग व करुणा की मृदुल हितभूमि से जब उसका संबंध

बचपन से अब तक

दो पाटों के बीच आलोपित बचपन है कभी तो बड़े और कभी बच्चे हो तुम कितनी धूप आँगन में आई मेघ भी झमाझम सावन में बरसे क्रम न टूटा तुम्हारे आने - जाने का जनम से लेकर मरने तक आँगन में खिलते रहे सुवासित पुष्प गर काँटे थे

नवजागरण का यह मंगलप्रात

प्रात किरणों का धरा पर शुभागमन रात की निस्तब्धता को दूर करे खगकलरव ने दे दी मधुर तान  मंदिर में बजता घंट निनाद  सरल सुषमित भोर में नवजागरण का यह मंगलप्रात

साथ अनंतर है

बंधनों   में   रहकर   भी   बंधनों   से   आगे    निकल जन्म  -   जन्मांतर   से    परे    केवल   एक   आशा मृत्यु   का    फिर    भय    क्या   ?     जब    यह    साथ    है     चिर     शाश्वत     सत्य     ,    क्यों    सुबके    डर  से क्या     बदलते    मौसम    को    बदलते    देख    रोते   हो

शब्द और भाव

शब्द  और  भाव  का  साथ  जैसे   सूर्य  से   तेजस्वी   मुख   पे दमकती  चंद्रबिंदी  की   शुभा शब्द   और  भाव  का   सहवास  जैसे   पूस   की  रात   में   जलती  आग शब्द  और   भाव   की   सौगात  जैसे  आत्मा   और   परमात्मा   का   चिर   साथ  शब्द   और    भाव   का   प्रकाश   जैसे   मंदिर   में   जलता   दीपप्रकाश

अंतर चुप रहने का

एक   -     कई  बार   बस   तुम   इसलिए   हारे कि   तुम   चुप   बने   रहे सही - गलत   अच्छे -  बुरे   के   प्रति   कुछ   इंगित  नहीं  किया निरीह   विरक्त  पाषाण  संवेदना - सहवेदना  से  अलग -  थलग खुद  को   कैद   में  बंद   कर  धृतराष्ट्र -  गाँधारी  हो   गए  तुम ! तुम्हारा  पश्चाताप   ही   तुम्हारी   विकट  सजा  हुई  ।

एक नदी हो जाओ !

लिखने   को   शब्द   नहीं   ,  भावों   की   एक  मुस्कुराहट   ले   लो । अगर  ऐतराज  न  हो  कोई   तो ,  तमाम   दुख  -  दर्द   के  पार जिंदगी  को   जिंदगी   के  असल   नजरिए   की   निगाह  से   झाँक 

एक मिट्टी एक स्वर

रुँधी   आवाज   बंद   थी   कई   दिनों   से एक   लंबे   अर्से   को   पार    करती वक्त    के    काँटें   को   चुनौती   देती एक   सूखे  ,   रोके   कंठ  और   दरकते   हिये   की   कहानी अकेले   मेले   को   तूफां   से   खींच   शोरगुल   कर   देना   का विप्लव  के  मायने  दूसरे  , जीवन  को  फिर  एक  बार  जीने को सहजता ,  सौहार्द  ,  विनत  समरसता  और   उम्मीद  के  सवेरे

अवनी दिवसालोक

अवनी   का    दिवसालोक शोभा    सुंदर    विस्तृत   अंतर -  आलोक श्रुति   पाठ    प्रार्थना   के   रव   भर   लायी पक्षियों    के    मिस    बोल    में    तुमुल   स्वर   मिलाए प्रभाती   की   पावनबेला   मंगलगीत   घर - घर   गाए नदियों   का   जल   निरंतर    पथ   की   पगडंडियाँ   जैसे   चलती   सतत  जाए  आते -  जाते   पथिक    में    तू   ना   अनजान 

वाणी तू गाए ... मन गीत फिर गुनगुनाए

वाणी   तू    गई    टूट    शब्द   गए   हमसे   रुठ अर्थ -  भाव    बिसर   गए    ज्यों   किहीं   दूर खोते    से     अपने     नेत्र    सजल    चुप    है उनमें     एक     मूक     गहरी     वेदना     छिपी सुबक     रही      अंतर्मन     की     विवर्ण     दशा मन    हारे    ना      शब्द   -   शक्ति     यही    वर    दे

चुपचाप बहती है एक नदी

जहाँ   मौन    के    स्वर    टूटते    हो वहाँ    एक    नदी    बहती   है  अंतर्धारा    गंगा    पवित्र   सी चट्टानों    की    चोट   ,    पाँवों    के   छालों    को    सहती   सी स्मृतियों     का      आवाह्न  -  आवाह्न  सुख    चाह    दुख   दर्द    भागी    जीवन    स्पंदन कठोर     नारियल     और    मीठा    जल  , अग्नि     ऊष्म     शुचि    संपन्न    पल  -   पल     प्रतिपल     अनवरत

पतंगें

पतंगें जलने को राजी है , दीये की लौ नहीं तो  बल्ब  हाजिर    है । जब  सच्चा संकल्प हो मन में ठना , तब तू चट्टान सा दृढ़ हो मैदान में खड़ा ना दो पग पीछे , ना दो पग आगे वर्तमान में तेरा भूत और भविष्य दोनों तेरे  साथ खड़ा जहाँ से प्रवाहित अनादि सृष्टिगंगा  क्रम दिनरात सतत चला , नवांकुर नव