बचपन से अब तक
दो पाटों के बीच आलोपित बचपन है
कभी तो बड़े और कभी बच्चे हो तुम
कितनी धूप आँगन में आई
मेघ भी झमाझम सावन में बरसे
क्रम न टूटा तुम्हारे आने - जाने का
जनम से लेकर मरने तक आँगन में
खिलते रहे सुवासित पुष्प गर काँटे थे
उनमें भी , यही उनका स्वीकृत स्वरुप था
बाकी तो कल्पना थी कोरी ।
उस आँगन में ही घुटनों के बल चली थी
उसी आँगन में चलना सीखा था
उँगली थामे संग माता - पिता रक्षक
ममता के आगार , कई बार गिरी थी
उसी आँगन में पली - बढ़ी थी
जो जीवन मैंने अब तक जीया
उसकी गहरी नीवं यही पड़ी थी
विचलित न होने का धैर्य मिला था
तो इसी जन्मदात्री भूमि से
हर चीज मन माफिक हो यह जरुरी नहीं
पर संघर्ष से तुम चूको न
मिलेगी विजय अवश्य ही , क्योंकर
दुविधा से हो ग्रसित तुम कभी अपनी
सुविधा के लिए न किसी असह्य को आहत करना
जीवन के संस्कार पुष्पित - पल्लवित
इसी आँगन की बगिया में मिले थे
बस याद मेरी इतनी ... बचपन से अब तक ।
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बहुत सुंदर❤️🩵
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 01 जून 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार 02 जून 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबचपन की याद पर सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत सृजन!
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