चुपचाप बहती है एक नदी
जहाँ मौन के स्वर टूटते हो
वहाँ एक नदी बहती है
अंतर्धारा गंगा पवित्र सी
चट्टानों की चोट , पाँवों के छालों को सहती सी
स्मृतियों का आवाह्न - आवाह्न
सुख चाह दुख दर्द भागी जीवन स्पंदन
कठोर नारियल और मीठा जल ,
अग्नि ऊष्म शुचि संपन्न
पल - पल प्रतिपल अनवरत
अबाधित वेगधारा , कभी - कभी
सुप्त खोयी भावों में करती प्रार्थना अंतर्नादों से
संदेश ईश का कर्म जग का अपरिहार्य सतत
स्वतंत्र , स्वतंत्र अवश्य स्वतंत्र तू भ्रमजाल तोड़ तू
वीणा सितार से खोये हुए सुर फिर साध
विश्व को देता चल अपनी निस्वार्थ सेवाभक्ति
जैसे चुपचाप बहती है एक नदी
नदी को तुमने सिर्फ़ जलधारा नहीं, बल्कि जीवन, संघर्ष और शुद्धता का प्रतीक बना दिया है। हर पंक्ति में एक शांति भी है और एक तीव्रता भी, जैसे बहती नदी खुद बोल रही हो। आपकी कविता हमें याद दिलाती है कि जैसे नदी रुकती नहीं, वैसे ही हमें भी अपने कर्म और प्रवाह को बनाए रखना चाहिए।
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