जबाव तुम्हारे ही पास है

बदलते   प्रतिमान   नाटकीय  आख्यान 

हर  क्षण  एक  नया  रुप  एक  नया  स्वरुप

उतार - चढ़ाव   पर्वतों  पठारों   से   होते  हुए 

हाईवे   की   लंबी  चौड़ी   सीधी  सपाट  सड़क

एक   कभी  न  खत्म  होने  वाली  कहानी

अनवरत   आते  -  जाते   मोड़ों   के  साथ 

सवाल   करती   सी    बेजुबानी

एक   तरफ   शुष्कता   के   गर्म   उफानों  में

ज्वाला   सी    प्रवरता   उद्दीप्त   है  मौन

डाली  पर   हँसता   फूल

एक   ठंडी   हवा  का   झोंका

घने  छायादार   वनों  का   पहरा

ओर -  छोर   पर   अंतर   की   दीवार 

दोनों  पथ  पर   साथ  - साथ   चलते  रहे

कही   कोई    फर्क   नहीं

एक   सामान्य   पटरी  पर 

पूरी  असलियत  के  साथ  दौड़ी

चली   जाती   थी    कहानी

कसक  बस   इतनी   है  कि  हम  

देखकर  भी   अनदेखा  कर   देते  है

यथार्थ   का   नाम   देकर    उसे   जिंदगी

से   अलविदा    कर    देते   है  ...  कि  यही

सच्चाई   है   ?  समानांतर   की    डोर  पकड़े 

एक   बच्चा   पार्क   में   खेलता   है 

एक    बच्चा    घूरे    पर 

जो   बड़े   होकर    मालिक   और   मजदूर  

सभ्य  -   असभ्य    में    बदल   जायेंगे  ।

क्या   नहीं    कर   सकते   हम   कुछ   ?

अपने   स्व   से   पूछो  ...  जबाव   तुम्हारे   ही   पास  है ।

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