पीले पते का स्वप्न था
क्षीण होती दुर्बल काया और
टूटकर अलग होता कोई
पीला पता शाख से
मिलेगा फिर अपनी माटी से
विलीन हो जायेगा इन पंचतत्वों में
जो सदा शाश्वत है , कहो अब क्या दुःख है ?
आनंद जीवन के ।
अमानत बन रहेंगी हमारी तुम्हारी यादें
आवाज नगमें बन गूँजेंगे कि सदियाँ उन्हें गुनगुनायेंगी
एक छोटा सा मगर विस्तृत स्थान नियत है
ये अमर अभिलाषाएँ उसी हृदयभूमि की उपज है
अविरल गंगधारा का कलकल निनाद है वहाँ
आवेगों की तीव्रता बिजली सी चपलता है
बहुत से बवंडर आये - गए
द्वीप को आकार एक मजबूत आधार दिया
स्व की पहचान लिए हुए जो इस भूतल से एक हुए
वहीं अंत तक टिके रहे बाकी तो अहं था
प्रभु कृपा से हम उससे जा पार उबरे
मन की प्रीत माध्यम बनी
हमारे तुम्हारे बीच सार्थक गहन संवाद का
चुप रहे के भी जो मन के भाव जान लिये
इतनी ममता इतना स्नेह इतनी करुणा
समझने को यहाँ और कुछ अब बाकी न था
निर्मल निष्कलंक चंद्र शांत सरोवर जल में प्लावित था
अवश्य प्रात और रात का क्रम यही था
बिना किसी कलुष के जो बंधनसहित स्वच्छंद था
यह सारा दृश्य कल्पना प्रसूत या सत्य था
क्षीण होती दुर्बल काया टूटकर अलग होते
शाख से पीले पते का स्वप्न था ।
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 11 जून 2025को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!