नदी - केदारनाथ सिंह की कविता

अगर   धीरे   चलो

वह   तुम्हें   छू   लेगी

दौड़ो   तो   छूट   जायेगी   नदी

अगर   ले   लो   साथ

वह   चलती   चली   जायेगी   किहीं  भी

यहाँ  तक   की  कबाड़ी  की  दुकान  तक  भी

छोड़   दो

तो   वहीं   अँधेरे   में

करोड़ों   तारों   की   आँख  बचाकर 

वह   चुपके   से   रच   लेगी

एक   समूची   दुनिया

एक   छोटे   से   घोंघे  में

सच्चाई   यह   है

कि   तुम   कहीं   भी  रहो

तुम्हें  वर्ष   के  सबसे  कठिन  दिनों  में  भी

प्यार   करती   है   एक   नदी

नदी  जो   इस  समय  नहीं  है  इस  घर  में

पर   होंगी   जरुर  कहीं  न  कहीं

किसी  चटाई  या   फूलदान  के  नीचे

चुपचाप   बहती   हुई 

कभी   सुनना  

जब  सारा   शहर  सो  जाय

तो   किवाड़ों  पर   कान  लगा

धीरे -  धीरे  सुनना

कहीं   आसपास 

एक  मादा  घड़ियाल  की  कराह  की  तरह

सुनाई   देगी   नदी

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