जिसमें मैं बंधी बँधकर जो दीप बनी
वह बिंब जिसमें मैं बँधी , बँधकर भी स्वतंत्र सदा
आत्मरुप निर्बंध रही , वही सच्चा बंधन था
जिसे मैंने कभी तोड़ा नहीं
जिसका मोह मैंने कभी छोड़ा नहीं
आँधियों की झंझा में भी उर में
जलता रहा विश्वास का दीप अखंड
चट्टान पर गर पड़े हथौड़ो के वार कईवह अंत में सुंदर साकार मूरत ही बनी
कठिनाइयों से ही तो जीने का तेज मिला
स्व की पहचान परहित संवेदना संज्ञान
द्वेष - द्वंद्व अज्ञान से पार वही सच्चा ज्ञान
उर में छिपा विश्वास प्रेम का अमर
हर भेद - व्यवधानों के पार कर्म ही जीवनाधार
रह - रह दे जाता जो संदेश यह सुंदर
वह अज्ञात अनाम जिसके बंधन में मैं बँधी
बँधकर जो दीप बनी
पहले - पहल तो थी मात्र सौंदर्य की ही उपासिका
असल परख तो भूला बैठी थी
अहं अज्ञान की काली अँधेरी कारा में
‘ मैं ʼ बंदी थी
मुक्तचेतना के आकाश में ही स्वर्ण - विहान
अंतरालोक प्रकाश मिला एक नई आशा का तेज
भ्रमित पथिक का जो पथ - प्रकाश बना
खोए हुए जीवन को फिर एक विश्वास मिला
जो अब तक थे अपने में ही बंद
सुने नहीं थे गीत प्रेम के अमर
देखा ही न था जग सुंदर
व्यर्थ जो अंधाधुंध चकाचौंध में ही दौड़े थे
छल कपट से आवृत मलीन वहाँ विषम
अँधेर नगरी में अब दीपालोक पवित्र
अन्तर्उर उजियाला भरता है
निर्मुक्त निर्विकार दृश्य जो चुपचाप हिये में उतरता है
स्थूल से सूक्ष्म की अनन्त यात्रा में
वह अनन्त आभा समेटे दीप प्रकाश की
चेतना सत्यं शिवं सुंदरं बिंब अब
पूर्ण रुप अंतस्तल में उद्घाटित है
जहाँ संपूर्ण ब्रह्मांड एक लौ के केंद्र में विराजित है
बंधनों से निर्बंध आत्मरुप वही सच्चा बंधन
जिसमें मैं बंधी बँधकर जो दीप बनी ।
आत्मचिंतन के साथ बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar rachana geharayi liye huye, sadar pranaam!
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