सघन छायादार वृक्षों के नीचे

सघन छायादार वृक्षों के नीचे

शांति का प्रवाह शीतलता की मंद बयार मिलती है

जो आज के ए०सी० कूलर पंखों से कई बढ़कर होती है

भावनाओं से भरा वह वृक्ष सजीव 

ममत्व सुकोमल गुण से संपन्न 

बिना किसी भेदभाव के अपना र्स्वस्व देता है  

धूप में छाया अरु भूखे को फल देता है 

सौरभ सुगंधित पुष्प करते जो तृप्त मन को

प्राणवायु आधार इस देह की देते बिन माँगे ही वे सबकुछ 

सदा प्रेम से पूरित परहित ही जिनका जीवन मूल्य 

आज प्रश्न है तुमसे तुमने इनके निस्वार्थ प्रेम का क्या   

फल दिया क्या तुमने अपने स्वार्थ के बीज रोपने हेतु 

नहीं काटी इनकी जड़े विकास के नाम पर तुमने अपने

अंधअहं को ही दर्शाया भ्रष्टाचार की झूठी इमारत खड़ी की

धन के लोभ में आपसी नाता तोड़ा  

पर फिर भी स्वभावता ममतामयी प्रकृति ने तुमको न छोड़ा

नित गिरते अंधकुँओं में क्या सुप्त चेतना तुम्हारी

देखकर जो अनदेखा करते हो   

याद रहे अंत में वही काटते हो  

जो प्रारब्ध में बोते हो

यहाँ सबकुछ पहले से नियत जगन्नियन्ता ही इस

संपूर्ण सृष्टि के आधार एक ही शक्ति सर्वोच्च

फिर महाशक्ति का विनाशकारी दंभ भर

क्यो खुद को छलते हो ?

क्या भूला दिया गया वह प्रेम वह ममत्व   

जिससे परपीड़ा के प्रति नेत्रों में सजल क्षोभ भरा

मन में सर्वात्म सुख का फूल खिला

फिर बौध्दिकता के अतिवाद से हो क्यो ग्रसित 

तुमने अपनी ही जमीन खोदी  

निर्ममता के कुठारे से आहत पहाड़ करता

रहा सदैव पुकार , पर तुम बधिर सुन न सके

उसकी आर्त आवाज , उपभोग की अतिशयता में

बढ़ चला उन्माद भूल गया त्याग महान

जीवन परिष्कार संस्कारशाला में आज भी प्रकृति 

बुलाती है लौटो कि अब भी समय है ।


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टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 18 जून 2025को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. मर्म के भाव से परिपूर्ण रचना...

    जवाब देंहटाएं
  3. आपने जो लिखा है वो कविता कम, एक चेतावनी ज़्यादा लगती है। पर वो डराने वाली नहीं, बल्कि जगाने वाली है। आपने पेड़ को सिर्फ एक जैविक चीज़ नहीं, एक माँ, एक गुरु, एक त्यागी प्रेमी की तरह पेश किया और ये बात सीधा अंदर उतरती है। सबसे गहरी बात क्या लगी पता है? "प्रकृति बुलाती है लौटो कि अब भी समय है।" मतलब अभी भी उम्मीद बाकी है, लेकिन सवाल ये है कि क्या हम वाकई लौटना चाहते हैं?

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