इबादत जो देखी है

अपलक नयन तीरे एक

अकूल तट विमल   

सपतरंग सप्तपर्ण प्रतिबिंब

खिलते शतदल कमल

फैला हुआ विस्तृत क्षितिज 

ठन गई है बात खुदा से

आँखों में एक अचरज सा

स्वप्न पलता है , तृण से कोमल

धागे की क्रोशिया सिली है

चूल्हे की रोटी में अपनेपन की 

मिठास घोली है , पूरे दिन घर  

मंदिर की साजो - साज में

एक गहरी मुस्कान भरी

इबादत जो देखी है ..!

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

आप सभी सुधी पाठक जनों के सुझावों / प्रतिक्रियों का हार्दिक स्वागत व अभिनंदन है ।

Popular posts

अजन्ता - भगवतशरण उपाध्याय रचित निबन्ध

विश्रांत हो जाती

दीप - भाव

लोक संस्कृति और लोकरंग

रामवृक्ष बेनीपुरी गेहूँ बनाम गुलाब निबंध

स्नेह ममता का

हँसो हँसो खूब हँसो लाॅफिंग बुध्दा