कल प्रात होगी अवश्य ही प्रात होगी
परम लक्ष्य जा दूर गिरा
पथ विचलित शूल से लहू बहा
भटकते अंधकार में अंध हो गई
नयनदृष्टि व्याकुल आतुरता उत्कंठा
मन में आसीन अधीरे
क्षोभ गंभीर भरा
उच्छृंखलता का परिणाम
महा ज्वाला उद्दीप्त गर्तों में
अकेली पतनोन्मुख दिशा से विहीन
अकलकल करता कोलाहल ये शोर
तुच्छ क्षुद्रा , संस्कृति की पहचान
भूल देखो खो गई , कैसा विह्वल ये दृश्य
नित धँसती जा रही जमीन
पलायन कर , कहाँ जाना है ?
स्वयं की गति को कभी शोधा ?
कभी जाना है ? रहे चुप अब
तुम क्या पाओगे , घड़ी के काँटों
को कैसे फिर वापस लाओ के ?
जो समय रहते ना चेता
नहीं बोये खेतों में बीज मेहनत के
बंजर जमीन क्या उपजे ?
खाली हाथ , मुहँ ढक कहाँ रोओ के
कचोटे की अनेकों आस ,
कचोटेगी रहे रहे अन्तर्मन की आवाज
पाई पाई मेहनत से कमायी ,
व्याकुल मन का एक स्वप्न सुनहरा
हो गया जो अकर्मण्य की कालिमा
से मिल गहन अंधेरा ,
दीपालोक की गुंजाइश एक ना छोड़ी
कहाँ अब सूर्य उदित होगा ? फिर
कब अब राम जनकपुर आयेंगे ?
तम की कालकोठरी में जो मन
अब बंदी है ! मन बंदी !
अश्रु धार बहेगी अब तो
निर्मम दिन - रात अविरत - सी ..!
पर बाकी है अभी एक आस उर की
हृदयकमल खिले का अवश्य खिले का
रात के बाद प्रात एक नया होगा
प्रलय पतन की आँधी में
कल फिर सृष्टि का निर्माण होगा
नवसृजन के गीत गाए जायेंगे
मन आले में प्रभुवंदन के दीप जगमगायेंगे
हर रात का अंत होता है
कल प्रात होगी अवश्य ही प्रात होगी ..!
बहुत सुन्दर सृजन
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