अवनी दिवसालोक
अवनी का दिवसालोक
शोभा सुंदर विस्तृत अंतर - आलोक
श्रुति पाठ प्रार्थना के रव भर लायी
पक्षियों के मिस बोल में तुमुल स्वर मिलाए
प्रभाती की पावनबेला मंगलगीत घर - घर गाए
नदियों का जल निरंतर
पथ की पगडंडियाँ जैसे चलती सतत जाए
आते - जाते पथिक में तू ना अनजान
प्रतिबिंब मौन झलके नानारुप - विधान
बहती शीतल पूर्वयाँ का मृदु - सहकार
हरता जो परिश्रम से थके - हारे का परिताप
मानव का मानव के प्रति प्रकृति जीवदया
इस धरा के प्रति सम्बन्ध गहरा प्रेम अटूट
उर में एक विश्वास जगाता
पल - प्रतिपल छाया रुप बन जो सहगामी चलता जाता
कठोर चट्टानों में दरकता हिया ममता का परित्राण
जब मिल जाता , हर असंभव संभव बन जाता
व्यवधानों की सीमा पार हर भ्रम उद्वेग मिट
गह्वर प्रशांत हो जाता , यह बेला मध्याह्न
जब कर्म में पूर्ण समर्पण हो जाता
स्वार्थ को त्याग कर अपने जीवन फलक को परमार्थ
से मिलाता लोभ ईर्ष्या घृणा अकारण क्रोध से छूट
जब वह जीवन ज्योति ज्ञान प्रकाश आत्म विस्तार
की फैलाता रुढ़िबंध से स्वछंद भगवती के सुमंगल
स्वर मधुर गाता वह स्वयंप्रकाश अस्ताचल में जब जाता
जीवन की संझा को और अधिक विस्तृत भाव बोध
मनगंगा से मिलाता
नभ आलोक की धवल शुभ्र चंद्र - तारक रश्मियाँ
तम को भी दूर भगाती , प्रदीप्त सरयू ज्योति की
अवतारणा सदैव अविरत यह क्रम अपनाती
जीवन का श्रेष्ठ मानवता की सर्वात्म भावना को
श्रध्दा - मनु में प्रकट कर विश्वभावना का वरण
अवनी दिवसालोक नित कर जाती ।
सच कहु तो आपने अपनी कविता में प्रकृति, मानवता और जीवन की भावनाओं को बहुत ही सुंदर तरीके से जोड़ा गया है। कविता में हर शब्द की मधुरता और प्रवाह इतना सहज है कि उसे पढ़ते समय आंखें और दिल दोनों खुल जाते हैं। सच में, यह सिर्फ शब्द नहीं, एक अनुभव है, जो हमें जीवन और प्रकृति की सुंदरता का एहसास कराता है।
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