भारतेंदु संदेश
● उन्नत चित्त ह्वैं आर्य परस्पर प्रीति बढ़ावै ।
कपट नेह तजि सहज सत्य व्यौहार चलावै।
जब न संसरग जात दोस गन इन सो छूटै।
तजि विविध देव रति कर्म मति एक भक्ति पथ सब गहै।
हिय भोगवती सम गुप्त हरिप्रेम धार नितही बहावै।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेंदु जी द्वारा अनुदित नाट्य कृति कर्पूरमंजरी के अंत में शुभकामना सन्देश के रूप में लिखी गयी थी।
अर्थ - कवि की इच्छा है कि सभी भारतवासी उन्नत चित्त होकर आपसी द्वेष और कटुता का त्याग कर पारस्परिक सौहार्द और भाईचारे का विकास करें। एक दूसरे के प्रति स्नेहभाव अपनाते हुए जातीय कटुता जैसे दोषों से ऊपर उठें सुपथ की ओर अपने कदम बढ़ाएं और एक कल्याणकारी और समृद्धशाली देश का निर्माण करें। सभी लोग अपने-अपने धर्म के अनुरुप अपने आराध्य की उपासना करते हुए , सभी धर्मों को एक समान मानते हुए। उनमें प्रतिपादित सार्वभौम और सर्वमान्य नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में स्थान देते हुए एक भक्तिपथ की ओर अग्रसर होयें और सभी के हृदय में ईश्वर प्रेम की निर्मल सरस सुमधुर धारा नित प्रवाहमान बनी रहे।
● विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥
निज भाषा विकास अहै, सब विकास को मूल।
बिन निज भाषा के, मिटत न हिय को सूल॥
प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेंदु जी की कविता 'निज भाषा' से उद्धृत है। इस कविता में कुल 10 दोहे हैं। जिसमें निज भाषा प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। भारतेंदु जी कहते हैं कि विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञान और कला-कौशल को दूसरे देशों से ग्रहण कर अपनाना एक अच्छी मिलनसार प्रवृत्ति का घोतक है, पर उनका प्रचार-प्रसार अपनी निज भाषा यानी अपनी मातृभाषा में ही करना चाहिए, क्योंकि अपनी मातृभाषा सभी प्रकार के ज्ञान - विज्ञान को समझने का मूल स्रोत है और यदि ऐसा नहीं हो , तो यह अत्यन्त दु: ख की बात है कि हम ज्ञान - विज्ञान के लिए किसी अन्य भाषा के आश्रित हो ।
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