आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध - भाव या मनोविकार

 अनुभूति  के  द्वंद्व  से  ही  प्राणी  के  जीवन  का  आरंभ होता  है । उच्च  प्राणी  मनुष्य  भी  केवल  एक  जोड़ी  अनुभूति  ही  लेकर  इस  संसार  में  आता  है ।  बच्चे  के  छोटे  से  हृदय  में  पहले  सुख  और  दुख  की  समान  अनुभूति  भरने  के  लिए  ही  जगह  होती  है । पेट  का  भरा  या  खाली  रहना  ही  ऐसी  अनुभूति  के  लिए  पर्याप्त  रहता  है । जीवन  के  आरंभ  में  इन्हीं  दोनों  के  चिन्ह  हँसना  और  रोना  देखे  जाते  है  पर  ये  अनुभूतियाँ  बिल्कुल  समान  रुप  में  रहती  है , विशेष  - विशेष  विषयों  की  ओर  विशेष  - विशेष  रुपों  में  ज्ञानपूर्वक  उन्मुख  नहीं  होती  ।  नानाविषयों  के  बोध  का  विधान  होने  पर  ही  उनमें  सम्बन्ध  रखनेवाली  इच्छा  के  अनेकरुपता  के  अनुसार  भिन्न-भिन्न  योग  संघटित  होते  है , जो  भाव  या  मनोविकार  कहलाते  है । 

अतः  हम  कह  सकते  है  कि  सुख  और  दुख  की  मूल  अनुभूति  ही  विषयभेद  के  अनुसार  प्रेम  , हास्य  , उत्साह  , आश्चर्य  , क्रोध  , भय  , करुणा , घृणा  इत्यादि  मनोविकारों  का  जटिल  रुप  धारण  करती  है । जैसे , यदि  शरीर  में  कहीं  सुई  चुभने  की  पीड़ा  हो  तो  केवल  सामान्य  दुख  होगा  , पर  साथ  ही  यह  ज्ञात  हो  जाए  कि  सुई  चुभानेवाला  कोई  व्यक्ति  है  तो  उस  दुख  की  भावना  कई  मानसिक  और  शारीरिक  वृत्तियों  के  योग  के  साथ  संश्लिष्ट  होकर  उस  मनोविकार  की  योजना  करेंगी  जिसे  क्रोध  कहते  है । जिस  बच्चे  को  पहले  अपने  ही  दुख  का  ज्ञान  होता  था , बढ़ने  पर  असंलक्ष्यक्रम   अनुमन  द्वारा  उसे  और   बालकों  का  कष्ट  या  रोना  देखकर  भी  एक  विशेष  प्रकार  का  दुख  होने  लगता  है , जिसे  दया  या  करुणा  कहते  है। इसी प्रकार  जिस  पर  अपना  वश  न  हो  ऐसे  कारण  से  पहुँचनेवाले  भावी  अनिष्ट  के  निश्चय  से  जो  दुख  उत्पन्न  होता  है  वह  भय  कहलाता  है ।  बहुत  छोटे  बच्चे  को  जिसे  यह  निश्चयात्मिक  बुध्दि  नहीं  होती  ,  भय  कुछ  भी  नहीं  होता  है ।  यहाँ  तक  उसे  मारने  के  लिए  भी  हाथ  उठाएँ  तो  भी  वह  विचलित  न  होगा ; क्योंकि  वह  निश्चय  नहीं  कर  सकता  कि  इस  हाथ  उठाने  का  परिणाम  दुख  होगा ।  मनोविकारों  अथवा  भावों  की  अनुभूतियाँ  परस्पर  तथा  सुख  या  दुख  की  मूल  अनुभूतियों  से  ऐसी  ही  भिन्न  होती  है  जैसे  रासायनिक  मिश्रण  परस्पर  तथा  अपने  संयोजक  द्रव्य  से  भिन्न  होते  है । विषय  बोध  की  विभिन्नता  तथा  उससे  सम्बन्ध  रखने  वाली  इच्छाओं  की  विभिन्नता  के  अनुसार  मनोविकारों  की  अनेकरुपता  का  विकास  होता  है ।  हानि  या  दुख  के  कारण  में  हानि  या  दुख  पहुँचाने  वाली  चेतन  वृत्ति  का  पता  पाने  पर  हमारा  काम  उस  मूल  अनुभूति  से  नहीं  चल  सकता  जिसे  दुख  कहते  है बल्कि  उसके  योग  से  संघटित  क्रोध  नामक  जटिल  भाव  की  आवश्यकतान  होती  है । जब  हमारी  इन्द्रियाँ  क्लेशकारिणी  बातों  का  पता  देने  लगती  है  , तब  हमारा  काम  दुख  मात्र  से  नहीं  चल  सकता बल्कि  भागने  या  बचने  की  प्रेरणा  करनेवाले  भय  से  चल  सकता  है । इसी  प्रकार  अच्छी  लगने  वाली  वस्तु  या  व्यक्ति  के  प्रति  जो  सुखानुभूति  होती  है , उसी  तक  प्रत्यनवान  प्राणी  नहीं  रह  सकता  , बल्कि  उसकी  प्राप्ति , रक्षा  या  संयोग  की  प्रेरणा  करने  वाले  लोभ  या  प्रेम  के  वशीभूत  होता  है । अपने  मूलरुप  में  सुख  और  दुख  दोनों  की   अनुभूतियाँ  कुछ  बंधी  हुई   शारीरिक  क्रियाओं  की  ही  प्रेरणा  प्रवृत्ति  के  रुप  में  करती  है ।  उनमें  भावना ,  इच्छा  और  प्रयत्न  की  अनेकरुपता  का  स्फुरण  नहीं  होता । विशुध्द  सुख  की  अनुभूति  होने  पर  हम  बहुत  करेंगे - दाँत  निकालकर  हँसेंगे  ,  कूँदेंगे  या  सुख  पहुँचानेवाली  वस्तु  से  लगे  रहेंगे , इसी  प्रकार  शुध्द  दुख  में  बहुत  करेंगे -  हाथ  - पैर  पटकेंगे , रोएँगे  या  दुख  पहुँचाने  वाली  वस्तु  से  हटेंगे - पर  हम  चाहे  कितना  उछल - कूदकर  हँसे , कितना  ही  हाथ  - पैर  पटकर  रोएँ   ,  इस  हँसने  या  रोने  को  प्रयत्न  नहीं  कहेंगे । ये  सुख  और  दुख  के  अनिवार्य  लक्षण  मात्र  है  जो  किसी  प्रकार  की  इच्छा  का  पता  नहीं  देते ।  इच्छा  के  बिना  कोई  शारीरिक  क्रिया  प्रयत्न  नहीं  कहला  सकती । शारीरिक  धर्म  मात्र  के  प्रकाश  से  बहुत  थोड़े   भावों  की  निर्दिष्ट  और  पूर्ण  व्यंजना  हो  सकती  है ।  उदाहरण  के  लिए   कंप  को  लीजिए  । कंप  शांति  की  संवेदना  से  भी  हो  सकता  है ,  भय  से  भी ,  क्रोध  से  भी  और  प्रेम  के  वेग से  भी ।  अतः  जब  तक  भागना , छिपना  या  मारना ,  झपटना  इत्यादि  प्रयत्नों  के  द्वारा  इच्छा  के  स्वरुप  का  पता  न  लगेगा  तब  तक  भय  या  क्रोध  की  सत्ता  पूर्णतया  व्यक्त  न  होगी । सभ्य  जातियों  के  बीच  इन  प्रयत्नों  का  स्थान  बहुत  कुछ   शब्दों  ने  लिया  है ।  मुँह  से  निकले  हुए  वचन  ही  अधिकतर  भिन्न-भिन्न  प्रकार  की  इच्छाओं  का  पता  देकर  भावों  की  व्यंजना  किया  करते  है ।  इसी  से  साहित्य  मीमांसकों  ने  अनुभाव  के  अंतर्गत  आश्रय  की  उक्तियों  पर  विशेष  ध्यान  दिया  है । क्रोधी  चाहे  किसी  ओर  झपटे  या  न  झपटे  , उसका  यह  कहना  ही  कि  ' मैं  उसे  पीस  डाँलूगा '  क्रोध  की  व्यंजना  के  लिए  काफी  होता  है । इसी  प्रकार  लोभी  चाहे  लपके  या  न  लपके  , उसका  कहना  ही  कि ,  कहीं  वह  वस्तु  हमें  मिल  जाती  उसके  लोभ  का  पता  देने  के  लिए  बहुत  है । वीर  रस  की  जैसी  अच्छी  और  परिष्कृत  अनुभूति  उत्साहपूर्ण  उक्तियों  द्वारा  जैसी  होती  है  वैसी  तत्परता  रणक्षेत्र  में  तलवार  हथियार  चलाने  में  नहीं ।  बात  यह  है  कि  भावों  द्वारा प्रेरित  प्रयत्न   या  व्यापार  परिमित  होता  है पर  वाणी  के  प्रसार  की  कोई  सीमा  नहीं । उक्तियों  में  जितनी  नवीनता  और   अनेकरुपता  आ  सकती  है  या  भावों  का  जितना  अधिक  वेग  व्यंजित  हो  सकता  है  उतना  अनुभाव  कहलाने  वाले  व्यापारों  द्वारा  नहीं । क्रोध  के  वास्तविक  व्यापार  तोड़ना , फोड़ना , मारना , पीटना  इत्यादि  ही  हुआ  करते  है  , पर  क्रोध  की  उक्ति  चाहे  जहाँ  तक  बढ़  सकती  है  किसी  को  धूल  में  मिला  देना , चटनी  कर  डालना , किसी  का  घर  खोदकर  तालाब  कर  डालना , तो  मामूली  बात  है । यही  बात  सब  भावों  के  सम्बन्ध  में  समझिए।  समस्त  मानव  जीवन  के  प्रवर्तक  भाव  या मनोविकार  ही  होते  है । मनुष्य  की प्रवृत्तियों  के  तह  में  अनेक  प्रकार  के  भाव  ही  प्रेरक  के  रुप  में  पाये  जाते  है । शील  या  चरित्र  का  मूल  भी  भावों  के  विशेष  प्रकार  के  संगठन  में  ही समझना  चाहिए  । लोकरक्षा  और  लोकरंजन  की  सारी  व्यवस्था  का  ढाँचा  इन्हीं  पर  ठहराया  गया  है । धर्म  - शासन , राज - शासन , मत - शासन  - सबमें  इनसे  पूरा। काम  लिया  गया  है । इनका  सदुपयोग  भी  हुआ  है  और  दुरुपयोग  भी । जिस  प्रकार  लोककल्याण  के  व्यापक  उद्देश्य  की  सिध्दि  के  लिए  मनुष्य  के  मनोविकार  काम  में  लाए  गए  है , उसी  प्रकार  किसी  संप्रदाय  या  संस्था के  संकुचित  और  परिमित  विधान  की  सफलता  के  लिए  भी। सब  प्रकार  के  शासन  चाहे धर्म  शासन  हो , राजशासन  या  संप्रदाय  शासन  मनुष्य  जाति  के भय  और  लोभ  से  पूरा  काम  लिया  गया   है । दंड का भय और  अनुग्रह  का लोभ  दिखाते  हुए  राज  शासन  तथा  नरक  का  भय  और  स्वर्ग  का  लोभ  दिखाते  हुए  धर्म  शासन  और  मत  शासन  चलते आ  रहे  है । इनके  द्वारा  भय  और  लोभ  का  प्रवर्तन  उचित  सीमा के  बाहर  भी  प्राय  हुआ  है  और  होता  रहता  है । जिस  प्रकार  शासक  वर्ग  अपनी  रक्षा  और  स्वार्थसिध्दि  के लिए  इनसे  काम  लेते  आए  है  उसी  प्रकार  धर्म  प्रवर्तक  और  आचार्य  आपके  स्वरुप  वैचित्र्य  की  रक्षा  और  अपने  प्रभाव  की  प्रतिष्ठा  के  लिए  भी । शासकवर्ग  अपने  अन्याय  और  अत्याचार  के  विरोध  की  शांति  के  लिए   भी डराते  और  ललचाते  आए  है । मत  प्रवर्तक  अपने  द्वेष  और  संकुचित  विचारों  के  प्रचार  के  लिए  भी  जनता  को  काँपते  और  लपकाते  आए  है । एक  जाति  को  मूर्ति  पूजा  करते  देख  दूसरी  जाति  के  मत  प्रवर्तक  ने  उसे  गुनाहों  में  में  दाखिल  किया  है । एक  संप्रदाय  को  भस्म  और  रुद्राक्ष  धारण  करता  देख  दूसरे  संप्रदाय  के  प्रचारक  ने  उसके  दर्शन  तक  में  पाप  लगाया  है ।  भावक्षेत्र  अत्यन्त  पवित्र  क्षेत्र  है । उसे  इस  प्रकार  गंदा  करना लोक  के  प्रति  भारी  अपराध  समझना  चाहिए।  शासन  की  पहुँच  प्रवृत्ति  और  निवत्ति  की  बाहरी  व्यवस्था  तक  होती  है । उनके  मूल  या  मर्म  तक  उनकी  गति  नहीं  होती । भीतरी  या  सच्ची  प्रवृत्ति  निवृत्ति  को  जाग्रत  रखने  वाली  शक्ति  का  नाम  कविता  है  जो  धर्म  क्षेत्र  में  शक्ति  भावना  को  जगाती  रहती  है । भक्ति  धर्म  की  रसात्मक  अनुभूति  है । अपने  मंगल  और  लोक  के  मंगल  का  संगम  उसी  के  भीतर  दिखाई  पड़ता  है । इस  संगम  के  लिए  प्रकृति  के  क्षेत्र  के  बीच  मनुष्य  को  अपने  हृदय  के  प्रसार  का  अभ्यास  करना  चाहिए।  जिस  प्रकार  ज्ञान  नरसत्ता  के  प्रसार  के  लिए  है  उसी  प्रकार  हृदय  भी । रागात्मिकावृत्ति  के  प्रसार  के  बिना  विश्व  के  साथ  जीवन  का  प्रकृत  सामंजस्य  घटित नहीं  हो  सकता । जब  मनुष्य  के  सुख  और  आनंद  का  मेल  शेष  प्रकृति  के  सुख  सौंदर्य  के  साथ  हो जायेगा , तब उसकी  रक्षा  का  भाव  तृणगुल्म , वृक्षलता , पशु - पक्षी , कीट - पतंग  सबकी  रक्षा   के  भाव  के  साथ  समान्वित  हो  जायेगा , तब  उसके  अवतार  का  उद्देश्य  पूर्ण  हो  जायेगा । काव्य  योग  की  साधना  इसी  भूमि  पर  पहुँचने  के  लिए  है । सच्चे  कवियों  की  वाणी  बराबर  पुकारती  आ रही  है  - 

विधि  के  बनाए  जीव  जीते  है  जहाँ  के  तहाँ ।

खेलत  फिरत  तिन्हें  खेलत  फिरत  देव ।।

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