भारती जय विजय करे- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कृत
भारती , जय , विजय करे
कनक - शस्य - कमल धरे ।
लंका पदतल शतदल
गर्जितोर्मि सागर - जल
धोता शुचि चरण - युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे
तरु - तृण - वन - लता - वसन
अंचल में खंचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल - कण
धवल धार हार लगे !
मुकुट शुभ्र हिम - तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
धावनित दिशाएँ उदार
शतमुख शतरव मुखरे !
संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कृत भारती जय विजय करे शीर्षक कविता से उध्दृत है ।
प्रसंग - कवि मातृभारती की स्तुति करता हुआ - उसके वैभवशालिनी , गौरवमयी और दिव्यता से परिपूर्ण रुप का गान करता है ।
व्याख्या - कवि कहता है कि यह भारत देश विश्व की अनमोल विजयभूमि है । संपूर्ण विश्व में माँ भारती के समान कोई नहीं है । माँ भारती का स्वरुप दिव्यता से परिपूर्ण है । यहाँ शस्य - श्यामला हरियाली कनकमयी होकर माँ भारती के स्वरुप को और सुशोभित करती है । इसके पदचरणों के समीप लंका अवस्थित है , जिस प्रकार देवी के चरणों के समीप कमल होता है । सागर की प्रवर लहरें माँ भारती का स्तुतिगान कर वन्दना करती हुई प्रतीत होती है । यहाँ स्थित वन - लताओं की लहलहाती हरियाली माँ भारती का सुन्दर परिधान है । जिसके अंचल में भाँति - भाँति के सुंदर पुष्प और औषधियाँ विकसित होती है । यहाँ पर बहने वाली गंगा की पवित्र धवलधार हार रुप में माँ भारती के गले में सुशोभित होती है । विशाल हिमालय शुभ्र - मुकुट के समान माँ भारती के शीर्ष पर दमकता है। यहाँ के निवासियों द्वारा उच्चारित प्रणवरुपी ओंकार चारों दिशाओं में गूँजित होता हुआ समस्त वातावरण में शुध्दता और सकरात्मकता का संचार कर देती है ।
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