आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित निबंध - मित्रता
जब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है , तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है । यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकांत और निराली नहीं रहती तो उसकी जान - पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते है और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल - मेल हो जाता है । यही हेलमेल बढ़ते - बढ़ते मित्रता में परिणत हो जाता है । मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है ; क्योंकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है । ( आगे पढ़े )
हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते है , जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह के संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है , हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है । हम लोग कच्ची मिट्टी के समान रहते हैं , जिसे जो जिस रुप का करे - चाहे राक्षस बनावे , चाहे देवता । ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है , जो हमसे अधिक दृढ संकल्प के हैं ; क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है । पर ऐसे लोगों का साथ करना और बुरा है , जो हमारी ही बात को ऊपर रखते है : क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है । दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवा पुरुषों को प्रायः बहुत कम रहता है । यदि विवेक से काम लिया जाये तो यह भय नहीं रहता , पर युवा पुरुष प्रायः विवेक से काम कम लेते है। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं , तो उसको कितना परख कर लेते हैं , पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रकृति आदि का कुछ भी विचार और अनुसंधान नहीं करते । वे उसमें सब बातें अच्छी - ही- अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं । हँसमुख चेहरा , बातचीत का ढंग , थोड़ी चतुराई या साहस - ये ही दो - चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट अपना बना लेते हैं । हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है । यह बात हमें नहीं सूझती की यह एक ऐसा साधन हैं , जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है । एक प्राचीन विद्वान का वचन है - ' विश्वास पात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है । जिसे ऐसा मित्र मिल जाये , उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया ।' विश्वास पात्र मित्र एक औषधि है । हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए की वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे , दोषों और त्रुटियों से हमें बचायेंगे , हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे , जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे , तब वे हमें सचेत करेंगे , जब हम हतोत्साहित होंगे , तब वे हमें उत्साहित करेंगे सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे । सच्ची मित्रता में उत्तम - से - उत्तम वैघ की - सी निपुणता और परख होती है , अच्छी - से -अच्छी माता का - सा धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न मनुष्य को करना चाहिए ।
छात्रावास में तो मित्रता की धुन सवार रहती है । मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है । पीछे के जो स्नेह - बंधन होते हैं , उसमें न तो उतनी उमंग रहती है, न उतनी खिन्नता । बालमैत्री में जो मग्न करनेवाला आनंद होता है , जो हृदय को बेधने वाली ईर्ष्या और खिन्नता होती है , वह और कहाँ ? कैसी मधुरता और अनुरक्ति होती है , कैसा अपार विश्वास होता है ! हृदय के कैसे - कैसे उद्गार निकलते है ! वर्तमान कैसा आनंदमयी दिखायी पड़ता है और भविष्य के संबंध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं ! कितनी जल्दी बातें लगती है और कितनी जल्दी मानना - मनाना होता है ! ' सहपाठी की मित्रता ' इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है ! किंतु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ , शांत और गंभीर होती है , उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते है । मैं समझता। हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत- से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना अपने मन में करते होंगे , पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटों में चलता नहीं । सुंदर प्रतिमा , मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति ये ही दो - चार बातें देखकर मित्रता की जाती है , पर जीवन- संग्राम में साथ देनेवाले मित्रों में इनमें से कुछ अधिक बातें चाहिए । मित्र केवल उसे नहीं कहते , जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करे , पर जिससे हम स्नेह न कर सके । जिससे अपने छोटे - छोटे काम तो हम निकालते जाये , पर भीतर- ही- भीतर घृणा करते रहे ? मित्र सच्चे पथ- प्रदर्शक के समान होना चाहिए , जिस पर हम पूरा विश्वास कर सके , भाई के समान होना चाहिए , जिसे हम अपना प्रीति - पात्र बना सके। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए- ऐसी सहानुभूति , जिससे एक के हानि - लाभ को दूसरा अपना हानि - लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक हीं प्रकार का कार्य करते हों या एक हीं रुचि के हों । इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है । दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है । राम धीर और शांत प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उदत्त स्वभाव के थे , पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था । उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता नहीं थी , पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी । यह कोई बात नहीं है कि एक हीं स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक- दूसरे की तरफ आकर्षित होते है । जो गुण हममें नहीं है , हम चाहते है कि कोई ऐसा मित्र मिले , जिसमें वे गुण हों। चिंताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूँढ़ता है , निर्बल बली का, धीर उत्साही का । उच्च आकांक्षा वाला चंद्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था । नीति- विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था ।
मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है - ' उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देना , मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज के सामर्थ से बाहर काम कर जाओ। ' यह कर्त्तव्य उसी से पूरा होगा , जो दृढ़-चित्त और सत्य- संकल्प का हो । इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए , जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी प्रकार पकड़ना चाहिए , जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था । मित्र हो तो प्रतिष्ठित और शुध्द हृदय के हों , मृदुल और पुरुषार्थी हों , शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों , जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सके और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा ।
जो बात ऊपर मित्रों के सम्बन्ध में कही गयी है , वहीं जान - पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है ह जान- पहचान के लोग ऐसे हों, जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों , जो। हमारे जीवन को उत्तम और आनंदमय करने में कुछ सहायता दे सकते हों , यघपि उतनी नहीं , जितनी गहरे मित्र दे सकते है । मनुष्य का जीवन थोड़ा है , उसमें खोने के लिए समय नहीं हैं । यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते हैं , न कोई बुध्दिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं , न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं , न सहानुभूति द्वारा हमें ढाँढस बंधा सकते हैं, न हमारे आनंद में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं तो ईश्वर हमें उनसे दूर हीं रखे । हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियाँ सजाना नहीं हैं । आजकल जान- पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं हैं । कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवापुरुषों को पा सकता हैं , जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे , नाच - रंग में जायेंगे , सैर- सपाटे में जायेंगे , भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे । यदि ऐसे जान- पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा । पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी । सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा । यदि ये जान- पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रहीं हैं , यदि उन शोहदों में से निकले , जो अमीरों की बुराइयों और मुर्खताओं की नकल किया करते है , दिन - रात बनाव सिंगार में रहा करते है, महफिलों में ' ओ- हो- ओ ' , ' वाह- वाह ' किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते है और सिगरेट का धुँआ उड़ाते चलते हैं । ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य , निः सार और शोचनीय जीवन और किसका है ? वे अच्छी बातों के सच्चे आनंद से कोसों दूर हैं । उनके लिए न तो संसार में सुंदर और मनोहर उक्ति वाले कवि हुए हैं और न संसार में सुंदर आचरण वाले महात्मा हुए हैं । उनके लिए न तो बड़े - बड़े वीर अद्भुत कार्य कर गए हैं और न बड़े ग्रंथकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं , जिनसे मनुष्य के हृदय में सात्विकता की उमंगें उठती हैं । उनके लिए फूल - पत्तियों में कोई सौंदर्य नहीं , झरनों के कल- कल में मधुर संगीत नहीं , अनन्त सागर तरंगों पर गंभीर रहस्यों का आभास नहीं , उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनंद नहीं , उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं । जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय- विषयों में ही लिप्त है ; जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है , ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन - दिन अंधकार में पतित होता देख कौन ऐसा होगा , जो तरस न खायेगा ? उसे ऐसे प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए।
मकदूनिया का बादशाह डेमेट्रियस कभी-कभी राज्य का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस - पाँच साथियों को लेकर विषय - वासना में लिप्त रहा करता था । एक बार बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था । इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हँसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते हुए देखा । जब पिता। कोठरी के भीतर पहुँचा , तब डेमेट्रियस ने कहा - ' ज्वर। ने मुझे अभी छोड़ा है । ' पिता ने कहा - ' हाँ ! ठीक है , वह दरवाजे पर मुझे मिला था । '
कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है । यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही विनाश नही करता , बल्कि बुध्दि को भी क्षय करता है । किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी , तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी , जो उसे दिन - दिन अवन्नति के गड्ढे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देनेवाली बाहु के समान होगी , जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जायगी ।
इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज- दरबार में जगह नहीं मिली । इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा । बहुत से लोग इसे अपना बड़ा दुर्भाग्य समझते , पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता , जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते । बहुत से ऐसे लोग होते है , जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुध्दि भ्रष्ट हो जाती है ; क्योंकि उतनी ही बीच में ऐसी- ऐसी बातें कही जाती है , जो कानों में न पड़नी चाहिए , चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते है , जिनसे उनकी पवित्रता का नाश होता है । बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है । बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती है। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते है कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते है , उतनी जल्दी कोई अच्छी गंभीर या अच्छी बात नहीं । एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पायी थी , जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आये , पर बार - बार आता हैं । जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते है , जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते , वे बार-बार हृदय में उठती है और बेधती है ; अतः तुम पूरी चौकसी रखो , ऐसे लोगों को कभी साथी न बऩओं , जो अश्लील , अपवित्र और फूहड बातों से तुम्हें हँसाना चाहे । सावधान रहो , ऐसा न हो कि पहले - पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि ऐसा एक बार हुआ , फिर ऐसा न होगा अथवा तुम्हारे चरित्र बल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जायेंगे । नहीं , ऐसा न होगा । जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता , तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है । धीरे - धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते - होते तुम्हारी घृणा कम हो जायेगी । पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है । तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले - बुरे की पहचान न रह जायेगी । अंत में होते - होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे ; अतः हृदय को उज्जवल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो । यह पुरानी कहावत है कि -
" काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय ,
एक लीक काजल की लागि है पै लागि है । "
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