मुझ थके को

धरा   पर   स्वप्न    सजाए   जीता   है   जीव

खोजता    है    परमेश्वर    को

कहाँ   मिलेंगे   ईश

मन   का    हारा  

तन    की    दुर्बल   छाया 

आँचल    मलिनता    का 

दंभ   द्वेष   और   घृणा   का   खारा   सागर

ईर्ष्या   की   अग्नि   प्रचण्ड   नेह   दाहक

कठोरता   का   ये   निर्मम   प्रतिरुप

बदलने   को    सृष्टि   की   ये   करुण   व्यथा

अवतीर्ण   होते   मन   में    दया ,  प्रेम ,

करुणा  ,  श्रध्दा ,   भक्ति    और    निर्वाण

के    मार्ग    सदा

द्वंद्व    महाभारत   सा    चलता   अन्तर्उर   में

भव्य   विकराल   रंच    भी    ना    देते   अपना

लोप    होता    कितना   बड़ा    संसार

व्यष्टि     और    समष्टि    का    ये

अंतर    चिर    विद्यमान 

रहने   दो    ये     धुर    विरोध    नहीं

अपने  -  अपने    अंतर   पर   ये   निश्छल

परस्पर    पूरक    स्वतंत्र    है । 

तुलना    करना    व्यर्थ    है  ,

सब    अपने    में    सार्थक   समर्थ   है ।

जाने   दो    ये    संघर्ष    पुराना

नित    नूतन     ग्रहण    करता   आकार

कहाँ     छिपा    वो    पथ   अनजान

जहाँ    जाते     अनन्त   चित्त    एकांत  

मन   का    है    ये    मर्म   सारा

जिसने    रच   डाला    कर्म   का   ताना - बाना

क्या    पाया  ,    क्या    खोया

रहा    जीवन   जब   तक   तूने

क्यों    ना    पहचाना  ?

द्वार    पर   आ    खड़े    थे   जो   स्वयं   ईश 

तूने    मृत्युशय्या   पर   आ   अब   जाना ।।

ईश   कितना   दयालु   है  ,  

फिक्र    कर    वो    मेरी  ,

ममता   की   गोद   में   अपनी  , आँचल   छाँव  

तले   मुझ    थके    को    सुलाने    आया  ।।


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